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02 नवंबर, 2010

किले में कविता: न होकम रहे न दाता




न होकम रहे न दाता
अब रखवाला कौन 
बदल गया है बहुत कुछ इधर 
बरसों में आया झांकने आज
मौसम तक रुख बदलता
आकर यहाँ हवा भी ठहरती है थोड़ा
दिनभर का सफ़र कह गया
 पूरी कहानी मुझे 
निकलता है सूरज रुकरुक कर यहाँ से
चाँद भी थमता है देर तलक
राह में जब आती किले की इमारतें
रास्ते तक  हो जाते टेड़े मेड़े  
आते जाते ताकते है बहुत देर
छिपा है जाने क्या पत्थरों  में यहाँ
नीरवता ओढ़ती है रातें
और सन्नाटे के सिरहाने 
गुज़रता है दिन जिनका
केवल पत्थर कैसे कह दूं
खंडित विखंडित ही तो है
कैसे भूलूँ कण कण में बिखरा शौर्य 
जौहर पढ़ती है बालाएं  किताबों में
यहाँ आज भी

मंदिरों में मीरा गाई जाती है
श्याम सुनते है आज भी कान लगाकर
पथिक टेकते हैं माथा देवरों में 
महकते हैं आज भी धूप ध्यान से 
मकबरें कई जो बने राह में 
भांत-भांत के गड़े हैं झंडे इस किले पर
पूरे तन्मय होकर दिल से
गोलमटोल पत्थर जमाकर
लोग यहाँ बनाते हैं कई घर सपनों के
इतना वैविध्य ,इतना आनंद
छोड़ दूं कैसे खुल्ला
दिल धड़कता है आज भी कुछ तो मेरा  
कैसे कह दूं 
ढह जाए,टूट जाए या गिर पड़े किला
कि फरक नहीं मुझको चुरा ले मूर्तियाँ 
कोई कलूटी कर दे दिवारें
रहूँ तो कैसे,आँखों देखी सहू तो कैसे  
ज़मीर तो ज़िंदा है आज भी
शहर भले यूं कह लें मुझको
न होकम रहे न दाता
अब रखवाला कौन

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