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11 जनवरी, 2011

कविता:-वही मेरा गाँव है

वही मेरा गाँव है
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सतरंगी हो जाए शहर भले ही
गाँव का अपना रंग आठवां 
गाँव सभी हैं एक सरीखे
दबे,कुचले और धंसे फंसे
यहां जाने वाला बाएं चलता
आने वाला बाएं 
जहां बैलगाड़ी चलती बिचोंबीच
वही मेरा गाँव है
मक्का से चलता गुज़ारा
किसी का सालभर यहां
किसी का घर गुलज़ार है
अब भी जिमने की पंगत अलग लगती है 
कुछ जातियों के हित आँख टपकती है मेरी
और 
कुछ जातियां आँख खटकती है
खटकन और टपकन के बीच बसा जो 
वही मेरा गाँव है
 मंदिर में दिया जलाते हैं कोई
मस्जिद में शिश झुकाता कोई
कुछ लोग ऐसे भी ज़िंदा अब तक
जो सेठों के चरण दबाते
बेलगाम ब्याज के घोड़े दौड़ते हैं  
बस कुचला जाता गरीब सुबह-शाम
वही मेरा गाँव है
कुछ जातियां न्याय करती
 अब भी कुछ जातियां सेवा
कुछ बेचारी दंड भोगती है
जहां क़ानून रोज़ लांघता है आदमी
वही मेरा गाँव है
कोई टी.वी. में धंसा हुआ है
कोई चिपका मोबाइल से
बचिकुची फुरसत में बुज़ुर्ग बतियाते हैं
वहीं मेरा गाँव है
कुछ लोग अरसे से छलते हैं
छले जाते बस मज़बूर 
घौर लूटपाट का आलम पसरा जहां 
वही मेरा गाँव है
वोट मतलब बोटलभर शराब यहाँ
यूं अधिकारों से आदमी अनजान है
आँखें मूँद लेती सरकार आकर जहां
वही मेरा गाँव है 
 
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