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18 जनवरी, 2011

किले में कविता;-मावठ में मुलाक़ात

बादल बरसे पूरे मन से
तो आज मिला आराम
पान थूंकी दिवारें धूल गई
संकड़ी गलियाँ चमक उठी
कामनाएं पूर गई
आज मिला आराम
बहता पानी पोंछ गया
घू-गंदी के आंगन को
किस मुंह से याद दिलाऊँ
ज़मीं गड़े खूंटों पर कभी
बंधा करते थे सजे-धजे हाथी
घोड़े ऊंट नाचते थे
जी बहलाते थे नट-नटनी
यूं इतिहास बुना करते थे 
बाकी बचा न ऐसा आलम
शान-शौकत चली गई
मुझ जर्जर को अब कौन सहे
अटकी रहती खुशी मेरी फिर भी
अब कुछ बातों में 
कल आकर खेलेंगे इतवारियाँ दोस्त मेरे
बिखरेगा आनंद चौकों-छक्कों में
कि खुल कर सांस लूंगा तब में जीभर
यही बचा रहा इस ढ़लान पर
हाँ दो बातें पक्की है
खींच ले जाएंगे दो-चार फोटू
फिरंगी आज आकर यहाँ
देख नहाया मुझको
आएँगे बस्ती के लोग भी
कोई देख,नोच,पिचक कर जाएगा
हांग मूत चले जाएंगे बाकी बचे हुए
जैसा भी हूँ खड़ा हुआ हूँ
डटा हुआ हूँ ससम्मान
भीख मांगना मुझे न आता
आकर कोई तो चूमेगा पलभर
सहलाकर देगा थपकीभर नींद
आस बचाए बैठा हूँ
आज़ादी के इस आलम से
कुछ तो अच्छी थी वो जकड़न
पुरखे भी पूछा-ताछा करते थे
बिन बरखा ही धूल जाता था 
बिन कहे सब मिल जाता
जानता हूँ
भारी बरखा अब बीत गई है
 अब तो बूंदाबांदी ठहरी

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