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27 फ़रवरी, 2011

कविता:-पड़ाव दर पड़ाव-1

जब मैं छोटा-सा था
माँ की गोद-सी स्लेट पर 
नींदें आ आकर रचती थी
लोरियों-सी मनभाती कविताएँ
जिन्हें जिया माँ-पिताजी ने
साथ गिरते-पड़ते फिर उठते हुए 
आज माँ ने बताया खुश होकर
साल दर साल
और पड़ाव दर पड़ाव
चलते,बढ़ते और बदलते
उम्र के समानांतर
शक्ल बदलते ताबूतों-सी
वो कविताएँ भी
यौवन से फिसलते हुए
अब कुछ बुढाती और 
पके बालों वाली लगती है
वज़नभरे शब्दों को ठेलती
अनुभवभरी माँ-सी
हाँ अब याद आया माँ के कहे पर कि
याद हो जाती थे कुछ गीत
सुनने-गुनगुनाने मात्र से
कितने सांचे और सीधे गीत थे वे
जाने कितना सोच डूबकर
बुना होगा उन्हें कवि ने
कि रंग गहरा छोड़ती वे रचनाएं
होर्लिक्स-सा स्वाद चस्पा करती थी जुबां पर
आज फिर 
इस पड़ाव पर याद आती है
वे पुरानी पर चमकीली कविताएँ
उस पड़ाव की

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