ज़मानेभर में बहुत अनुभवभरी राहें हैं,बस ज़रूरत है कभी तो हम कार से उतरकर ज़मीन पर पैदल चलने का साहस करें. मेरी समझ में कुछ अंदाज़ धूल से पाँव रगड़कर चलने से ही नसीब हो सकते हैं.ये भी विलग बात है, किसी के भाग में विधाता ने रगड़ते पाँव वाले गाँव ही लिखे हैं जो अरसे से ज़मीन से कभी दो अंगुल भी ऊपर नहीं उठ पाएं हैं.खैर विधाता को मैंने नहीं देखा तो इस भान्त की बातें मेरे मुंह से निकलती रही तो पाठक साथी मुझ पर भाग्यवादी होने की कारी चिपकाते देर नहीं करेंगे.हाल तक की ज़िंदगी में तो मैंने अपनी मेहनत का ही खाया है.चित्तौड़ जैसे सांस्कृतिक शहर में रहते हुए इस महीने मुझे चौदह साल हो जाएंगे.इस पूरे सफ़र में दस साल तक मज़बूरियों की रजाईयां ओढ़ कर ही सर्दियां काटी और बीती है,बस अभी हाल के चार साल ही जीवन के लिए पटरी पर आने के नाम पर आरामपरस्त कहे जा सकते हैं.कुल जमा ठीक ठाक रहे.ऐसे कठीन दौर में ही मेरी पत्नी नंदिनी ने भी मेरे साथ किस्मत के बजाय मेहनत पर विश्वास करने में साथ हो विचार को पुष्ट किया है.
25 दिसंबर, 2011
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