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18 दिसंबर, 2011

डॉ. सत्यनारायण व्यास

साल दो हज़ार ग्यारह में मेरी याददास्त के अनुसार फरवरी के तीसरे दिन ही शाम अचानक मुझे लगा कि डॉ. सत्यनारायण व्यास से मिले बहुत दिन बीत गए.सपत्निक उनके घर मिलने जाने का एक और कारण ये बना कि वे दो दिन पहले ही अपनी आँखों के लगातार अस्वस्थ होने से स्वैच्छिक सेवानिवृति ले चुके थे. यों तो वे हमारे शहर के नामचीन चिन्तक और बेबाक बोलने वाले हिंदी लेखक हैं.वैसे मैं हिंदी साहित्य का औपचारिक रूप से विद्यार्थी कभी नहीं रहा,बस पल्लव (हमारे पल्लव भैया)जो वर्तमान में हिन्दू कोलेज में हिंदी के सहायक आचार्य हैं के नेतृत्व में हुई गोष्ठियों के बहाने व्यास जी से परिचय हुआ था.बाद के समय में स्पिक मैके आयोजनों के दौरान उन्हें सुनने का मौक़ा मिलता रहा.खैर उस रोज़ डेड घंटे तक बातों का दौर चला.हिन्दी के आदमी से सारी बातें मेवाड़ी में हुई.घर-परिवार से लेकर छूटे हुए कोलेज तक और आगे की योजनाओं से लेकर देश के मौजूदा हालात पर.कुछ बाकी नहीं बचा.
मैं भी उनकी बेबाकी का कायल था.रेडियो के लिए मेरी नैमेत्तिक उदघोषक की नौकरी के समानांतर उन्हें अपनी कविताओं के साथ प्रसारित होते हुए सुना.ये उनमें निहित भांत-भांत के गुणों से मेरा बार-बार परिचय था.गांवों,गरीबों और लोक संस्कृति के धाकड़ हिमायती डॉ. व्यास से लम्बी बातें करना मुझे अच्छा लगने लगा. एक दिन अचानक बातों ही बातों में एक नई रिश्तेदारी पनपी.मेरा ननिहाल और उनका पैत्रिक गाँव एक ही हमीरगढ़(भीलवाडा) था. बस फिर क्या कला और र्संस्कृति के प्रति मेरा अनुराग उन्हें भा गया और उनसे ही मिलने वाले सतत प्रेरण से मैं उनके नज़दीकआता गया.मैं अब माणिक से भाणु(भाणेज यानिकी बहन का लड़का ) बन गया.
समय गुज़रता रहा,कभी मंच पर तो कभी उनके घर हुई मुलाकातें मेरे ज्ञान की परतें खोलती रही.गहरी समझ ढालने को वे सदैव मुझे क्लासिक्स पढ़ने को कहते रहे. स्वयं सेवी संस्थाओं में युवा पीढ़ी के पागलपन की हद तक  जाकर प्रतिभागिता निभाना उन्हें अखरता था.वे खुद के संघर्ष को देखकर पहले सरकारी नौकरी की तरह स्थायित्व की बात उकेरते थे.मुझे समय पर मिली नौकरी से बेहद खुश होकर बाद में यानिकी अब समाज के लिए समय निकालने को प्रेरित करते रहे.यथासमय उनका पिताजी के समान न सानिध्य मुझे बुद्धी और विवेक के स्तर पर गहरा करता रहा.
सन बावन में जन्में व्यास जी ने बहुत नौकरियाँ की.ग्यारह साल कोर्ट में रहने के बाद कोलेज शिक्षा में आए मगर आज की युवा पीढ़ी से वे सदैव दु:खी रहे.इस बेढंग के वक्त पर वे सदा दया करते रहे.कविता और आलोचना में रुचिशील डॉ.व्यास आत्मप्रसंशा को सबसे घातक मानते हैं.यहीं सोच कर उन्होंने सेवानिवृति पर आम भेड़चाल के माफिक कोई अभिनन्दन का तमाशा नहीं किया. वे कहते हैं कि अभिनन्दन शब्द धुन मात्र से ही वैशाखनंदन से मिलता जुलता लगता है.उपर से नौकरी मिलने पर खुशी झलकाते लोग अच्छे लगते हैं मगर नौकरी छोड़ने पर ये कैसा ढोल-ढमाका.उन्होंने अपने समय में देखे ऐसे लोगों को आड़े हाथों लिया जहां लोग कार्यालय से घर तक घोड़े पर आते हैं. खासकर बुलाए गए बेंडबाजों के साथ जुलूस निकलता है,जिनका काम ''बहारों फूल बरसाओं मेरा महबूब आया है'' जैसे गीत के साथ घर के दरवाज़े पर जाकर ख़त्म होता है.बहुत समझाने पर भी साथी शिक्षकों ने अभिनन्दन किया जिसके वे प्रबल विरोधी थे.वे कहते हैं कि अभिनन्दन में पढ़े गए कसीदे सुनकर ठीकठाक आदमी का भी दिमाग घूम जाता है.उन्हें सेवानिवृति पर की जाने वाली चोंचलेबाजी की परम्पराएं आत्मप्रसंशा के पूल बांधती नज़र आती है.जिसे वे घातक मानते हैं..सबकुछ चुपचाप किया .......वे कहते हैं की नौकरी मिलने पर खुशी मिलते देखी है छोड़ने पर खुशी कैसी. दर्शनशास्त्र और मार्क्सवाद में गहरी समझ और रूझान रखने वाले डॉ. व्यास के घर में बड़ी बेटी रेणु सहकारिता विभाग में इन्सपेक्टर है जिन्होंने दिनकर पर शोध किया है.पत्नी चन्द्रकान्ता जी जो व्यास जी की सदैव सहगामी होकर पिछले सालों अपने लोकगीतों के दो आवश्यक संग्रहों से चर्चा में हैं.परिवार के माहौल में साहित्य और संस्कृति की अनोखी विचारधारा साफ़ झलकती हैं.सभा में दिए उनके भाषण और घर की दुकानदारी में बिल्कुल भी भेद नज़र नहीं आता.अन्दर-बाहर से एकदम सपाट और निस्वार्थ प्रेम.छोटा बेटा कपिल उदयपुर में चिकित्सक है.
अपने तीन कविता संग्रहों से चर्चा में आए व्यास ने 'देह के उजाले में',असमाप्त यात्रा' और 'संन्यास' नामक किताबें प्रकाशित हुई है.लोक कलाओं के प्रति अनुराग और झुकाव रखने वाले डॉ. व्यास हमेशा से जनवादी विचारधारा के इर्दगिर्द लगे .दक्षिणी राजस्थान के लोक जनजीवन से जुड़े उनके  शोधकार्य  से यात्रा शुरु होकर यहाँ तक आ पहुँची कि वे खुद मोहनलाल  सुखाडिया विश्वविद्यालय,उदयपुर में शोध-निदेशक  रहे.लेकिन डॉ.सत्य नारायण व्यास अब अपनी पढ़ने-लिखने की असमर्थता के चलते पास-पड़ौस में लोगों से संवाद को अपना माध्यम बनाना चाहते हैं. वे अब चित्तौड़गढ़ के उपनगरीय हिस्से सेंथी गाँव की चौपाल पर अनपढ़ और कामगार लोगों से वर्तमान के आर्थिक-राजनैतिक समीकरणों पर बात-विचार में समय गुजारना चाहते हैं..एक आग्रह पर वे एक बात पर और  सहमत हुए कि यथासंभव युवा साथियों के बीच वे संवाद के बहाने विचार और ज्ञान को बांटने के हित समय निकालेंगे.उनका मानना है अनपढ़ आदमी पढ़े लिखे को बहुत मान कर उसके पास जाने से कतराता है.ज़बकी अनपढ़ मगर अनुभवी किसान,  किताबी ज्ञान के....बनिस्पद ज्यादा ज्ञानवान होता है .
उनके साथ दिनभर का एक सफ़र मुझे बहुत याद आता है जब हम भीलवाड़ा के कारोई गाँव गए थे. प्रयोजन वहाँ के वासी राजस्थानी के असली दोहाकार महाराज शिवदान सिंह जी से मिलने का था.उनके यहाँ का आतिथ्य और उनके दोहों ने मुझ पर भी बहुत गाढा असर डाला.अस्सी के आस पास की उम्र के शिवदान जी के प्रति डॉ. व्यास का स्नेह और आदर प्रेरित करने वाला था. वो दिन सही मायने में दो उपर उठे हुए लोगों के साथ की संगत के नाम दर्ज हुआ.उस दिन का ठप्पा किसे न याद रहे जब उनके दोहों के साथ ही मुझे उनके कल्पना की ताकत का एक और संसार वहाँ मिला जिसे आप उनके ब्लॉग पर देख सकते हैं.डॉ. व्यास के सानिध्य में बहुत कुछ सीखने लायक होता है ये अलग बात है कि हम जानकार भी उनमें से कुछ बातें ही साध पातें हैं.एक बारगी शिवदान जी का एकल काव्यपाठ डॉ. व्यास के घर हुआ.उस दिन मेरे दिमाग के बहुत से सीलन भरे परदों को धूप लग गई.उस आयोजन की रपट और फोटोग्राफी करते हुए मैं खुद को सार्थक कर रहा था.खैर यही कुछ डॉ.व्यास के करीब जाने की यादों का हिस्सा रहा .

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