(होशंगाबाद,मध्यप्रदेश के युवा उपन्यासकार अशोक जमनानी जो पिछले सालों अपने तीन उपन्यासों के जरिये साहित्य जगत में चर्चित रहे, से हाल ही में की गई बातचीत )
लोग कहते हैं कविता का दौर खत्म हो गया है,कथा की तूती बोलती है,उपन्यास गढ़ने और पढ़ने का वक्त कम ही मिलता है.आप क्या कहेंगे?
अशोक जमनानी |
आपने एक प्रश्न में कई प्रश्न पूछ लिए चलिए सबसे पहले बात करते हैं कविता की। मेरे विचार से कविता का दौर खत्म हुआ ये कहना ठीक नहीं होगा। अच्छी कविता आयेगी तो वो पढ़ी भी जायेगी और सराही भी जायेगी। एक बात यह भी है कि हम कहते तो हैं कि कविता का दौर खत्म हुआ लेकिन आज भी कविता सबसे अधिक लिखी जा रही है और वो लोग भी लिख रहे हैं जो साहित्य की दूसरी विधाओं से जुड़े हुए हैं। मेरी छवि उपन्यासकार की है पर मैं भी कविता लिखने से स्वयं को रोक नहीं पाता। दूसरी बात है कथा की तूती बोलने की तो मेरा मानना यह है कि अब भी कहानियां कविताओं से कम ही लिखी जा रही हैं। हां! ये बात ज़रूर है कि कहानियां साहित्यिक बिरादरी और एक हद तक पाठकों का ध्यान आकर्षित करने में अधिक सफल रही हैं। फिर आपने पूछा है उपन्यास के बारे में। जहां तक उपन्यास पढ़े जाने की बात है तो मैं अपने निजी अनुभव से कह सकता हूँ कि उपन्यास आज भी पढ़े जा रहे हैं। मेरे पहले उपन्यास ‘को अहम्’ के चार संस्करण आ चुके हैं। बात वही है चाहे कविता हो या उपन्यास यदि वे कुछ दे सकते हैं तो स्वीकार किए जाएंगे अन्यथा तो जो हश्र हो रहा है वो आपके सामने ही है। रही बात उपन्यास गढ़ने की तो यह बात पूर्णतया सत्य है कि उपन्यास लेखन बहुत अधिक समर्पण की मांग करता है और उपन्यास लेखन में समर्पण की कमी कृति को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाती हैं।
साहित्य संस्कृति के क्षेत्र में राजनीति और धड़ेबाजी को लेकर आपके विचार
आपका यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। पहले बात राजनीति की। बहुचर्चित व्यंग्यकार स्व. हरिशंकर परसाई ने कहा कि वो राजनीति पर इतना अधिक इसलिए लिखते हैं क्योंकि राजनीति अब हर क्षेत्र में निर्णायक ताकत हो गयी है। आप ही देखिए अब इस बात तक का निर्धारण राजनीति कर रही है कि हमारी चाय में शक्कर होगी भी या नहीं ऐसी स्थिति में यह कहना कि साहित्य और संस्कृति राजनीति से अछूते रह जाएंगे शायद अपने आप को धोखा देने वाली बात होगी। जब तक राजनीति हर क्षेत्र की निर्णायक ताकत है तब तक वो साहित्य और संस्कृति को भी प्रभावित करती ही रहेगी। और विसंगति भी तो यही है कि कहने को जनतंत्र है पर निर्णायक शक्ति आज भी जन के पास न होकर राजनीति के पास है। दूसरी बात है धड़ेबाजी की यह भी एक विसंगति ही है कि हमने एक ऐसी व्यवस्था विकसित की है जो व्यक्ति से अधिक समूह को स्वीकृत करती है। एक व्यक्ति अपना ज़ायज काम लेकर व्यवस्था से जुड़े किसी व्यक्ति के पास जाये तो उसकी बात षायद न सुनी जाये लेकिन वही बात जब समूह लेकर जाता है तो व्यवस्था सक्रिय हो जाती है। इसीलिए समाज के हर वर्ग ने अपने समूह बना रक्खे हैं। साहित्य में भी कई समूह या धड़े हैं जो अपने विचारों और हितों को लेकर टकराते रहते हैं। वैसे मैं समूहों का विरोधी नहीं हूँ पर जब समूह गिरोह बन जाते हैं तो खतरनाक हो जाते हैं।
समाज में आज भी साहित्य बदलाव लाने का बड़ा साधन बन सकता है,मध्य प्रदेश के परिदृश्य में ये कितना सही लगता है?
जो स्थिति पूरे देश की है थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ वही स्थिति मध्य प्रदेश की भी है। साहित्य बदलाव के लिए प्रेरक शक्ति बन सकता है पर क्या समाज भी वो बदलाव चाहता है? हकीकत तो यह है कि आप जिस बदलाव की बात कर रहे हैं वो समाज को ऊंचा उठाने वाला होगा परंतु हमारा समाज तो अपने हित के लिए ऊपर नहीं वरन् नीचे देख रहा है।
साहित्य को लेकर पाठकीयता के ग्राफ पर आप क्या सोचते हैं?,वैसे अभी तक आपके भी तीन उपन्यास व्यास गादी ,बूढ़ी डायरी और को अहम् बाजार में आये,क्या अनुभव रहा ?
यदि हम पुराने दौर से तुलना करेंगे जब टी.वी. जैसे साधन नहीं थे तो हमें लगेगा कि पाठक बहुत कम हो गए हैं। लेकिन आज भी कृति की सामर्थ्य ही पाठक संख्या का निर्धारण करती है। मैं आपको बता ही चुका हूं कि मेरी कृतियों को बहुत पाठक मिले और मेरे पहले ही उपन्यास के चार संस्करण आ चुके हैं।
साहित्य-संस्कृति के झमेले में अपनी शुरुआत से आज तक के सफर पर कुछ कहना चाहेंगे ?
आप साहित्य और संस्कृति को झमेला कह सकते हैं। पर अब तो यह झमेला ही मुझे वो ऊर्जा प्रदान करता है जो न केवल मेरी रचनात्मकता के लिए आवश्यक है बल्कि जीवन के शेष संघर्ष के लिए भी बहुत ज़रूरी है।
देशभर में छपने छपाने का दौर है,पढ़ने की आदत बुढ़ा रही है,मगर लोगों का लेखन जवान हो रहा है,बहुत ज्यादा और अपरिपक्व ........क्या लगता है ?
आपने प्रश्न में उत्तर मिला दिये। अपरिपक्व और अधिक लेखन शायद रचनाधर्मिता में बाधक हो सकता है। स्पिक मैके के संस्थापक डॉ. किरण सेठ से एक बार मैंने कहा था कि आप नए कलाकारों को कम अवसर क्यों देते हैं। तब उन्होंने कहा था कि हमें नयी पीढ़ी को शास्त्रीय संगीत से जोड़ना है। यदि हमने उनके सामने कच्चे फल परोस दिए तो शास्त्रीय संगीत से जुड़ने के स्थान पर वो उससे और अधिक दूर हो जायेंगे। हमें तो ऐसे फल परोसने हैं जिनमें अधिकतम रस हो और वो रस अपने श्रोताओं को देने की सामर्थ्य भी हो। यदि नए कलाकारों में यह सामर्थ्य है तो उन्हें अवश्य अवसर मिलना चाहिए। यही बात साहित्य पर भी लागू होती है अपरिपक्व लेखन कई बार पाठकों को साहित्य से दूर भी कर देता है। वैसे मैं चाहता हूं कि युवा लेखक सामने आयें पर यह भी चाहता हूं कि वे अपना निष्पक्ष मूल्यांकन भी करें।
मीडिया के बढ़ते हुए मनमानीकरण और ठीक ठाक स्तर पर आ जाने से लघु पत्रिकाओं और ब्लॉगिंग जगत से क्या आस लगाई जा सकती हैं ?
मीडिया की मनमानी मीडिया की साख को बहुत नीचे गिरा ही चुकी है। कहां तो लगता था कि मीडिया के कारण बहुत बड़ा बदलाव आयेगा और कहां यह स्थिति जिसमें ऐसी ताकत की तलाश है जो मीडिया की कमियों को दूर कर सके। लघु पत्रिकाएं और ब्लागिंग तेजी से बढ़ तो रही हैं पर अब भी इनकी पहुंच सीमित है। मुझे लगता है कि इनका प्रसार भी बढे़गा और निश्चित रूप से ये उनकी भी बात करेंगी जो मीडिया की टी. आर. पी. से भिन्न हैं।
सत्य,भावना,आदर्श,ईमानदारी,सादगी अहिंसा और स्वाभिमान जैसे गुणों की बात अब बेमानी लगती है....गहराते उपभोक्तावादी दृष्टिकोण पर क्या अनुभव करते हैं ?
ये हमारे शाश्वत् मूल्य हैं ये कभी बेमानी नहीं होंगे। वैसे कई ताकतें हैं जो चाहतीं हैं कि ये सब कुछ बेमानी हो जाये तो मनुष्य के मनुष्य बने रहने की संभावना भी समाप्त हो जाये।
दूसरी बात है उपभोक्तावाद की। ये बहुत बड़ी बीमारी है और सारी ताकतों को इस बीमारी को और बड़ा करने में ही अपनी सार्थकता नजर आ रही है। क्या हमने सोचा है कि हम कहां पहुंचना चाहते हैं। एक अमेरिकी चौदह भारतीय लोगों के बराबर उपभोग करता है अर्थात जब हम पांच सौ करोड़ की आबादी पर पहुंचेंगे तब जितना उपभोग हम करेंगे उतना उपभोग आज के मात्र पैंतीस करोड़ अमेरिकी कर रहे हैं। क्या हमने सोचा है कि उस स्तर का क्या मूल्य हमें और हमारी प्रकृति को चुकाना पड़ेगा।
उपभोक्तावादी अपसंस्कृति ने हमें बहुत नुकसान पहुंचाया है। भारतीय समाज का सदियों से स्थापित प्रकृति से रिश्ता तो टूट ही रहा है मनुष्य के मनुष्य से रिश्ते का आधार भी स्वार्थ होता जा रहा है।
पं. माखनलाल चतुर्वेदी की बात याद आती है उन्होंने कहा था- ‘‘कितने संकट के दिन हैं ये। व्यक्ति ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहां भूख की बाजार दर बढ़ गयी है, पायी हुई स्वतंत्रता की बाजार दर घट गयी है। पेट के ऊपर हृदय और सिर रखकर चलने वाला भारतीय मानव मानो हृदय और सिर के ऊपर पेट रखकर चल रहा है। खाद्य पदार्थों की बाजार दर बढ़ी हुई है और चरित्र की बाजार दर गिर गयी है।’’
आपकी कौनसी रचनाएँ पाठकों के लिए आने वाली हैं ?
मेरा नया उपन्यास छपाक-छपाक संभवतः अगले महीने प्रकाशित हो जायेगा।
कोई ऐसी बात जो छूट गई हो और आप उस पर कुछ कहना चाहते हों.
माणिक काफी कुछ कह चुका हूँ बस एक बात कहना चाहता हूं । सकारात्मक ताकतों की यह ज़िम्मेदारी होती है कि वो नकारात्मक ताकतों को परास्त करें , परंतु अभी तो नकारात्मक ताकतें निश्चिंत हैं क्योंकि वो जानती हैं कि उन्हें परास्त करने वाली सकारात्मक ताकतें आजकल अपनी स्वार्थ सिद्धि और आपसी सिर फुटौवल में मशगूल हैं। मेरा एक शेर है-
अब रहता नहीं है परेशान वो मेरे वज़ूद से
वो जानता है खुद को हूँ मैं कत्ल कर रहा
वो जानता है खुद को हूँ मैं कत्ल कर रहा
पता:-अशोकजमनानी,होटलहजूरी होशंगाबाद,मध्यप्रदेश
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