वसुधा जैसी समर्थ और विचार संचित पत्रिका का हालिया अक्टूबर-दिसंबर अंक साल दो हज़ार ग्यारह पढ़ रहा हूँ.जाने माने कथाकार स्वयं प्रकाश की सम्पादकीय झंकझोरती है.याद आता है कभी चित्तौड़ में ही उनके मुंह से ही उनकी कहानियां सुना करते थे.इतिहासकार प्रो.रामशरण शर्मा के जाने के बाद उनके बारे में उनके मित्र लोगों के आलेख बहुत सी नई जानकारियाँ दे रहे हैं.मेरे इतिहास में एम्.ए. करते समय जाने कहाँ गए मेरे मार्गनिर्देशक,जो मुझे आज के दौर के इन इतिहासविदों से समय रहते परिचित भी नहीं करवा सकते . खैर खुदा की रहमत से समय निकल गया. अब समझे ज़माने में एक अच्छे गुरु के क्या मायने हैं.दबंग और समर्थ रामशरण जी के बाद बीते महीने गुज़रे पत्रकार और कथाकार साजिद रशीद पर दो शोकालेख और उनकी सबसे चर्चित कहानी 'सोने के दांत' पढी. बहुत लम्बे समय बाद कोई कहानी पढ़ी वो भी बेहद हद तक साझा करने लायक कहानी.देश के बहुत से आलोचकों द्वारा भी पढ़ने लायक करार दी गयी कहानी थी.
पत्रिका का ये अंक पढ़ना जारी है ठीक सांस लेने की तरह.शकील सिद्धिकी का प्रगतिशील लेखक आन्दोलन के पच्चत्तहर वर्ष की पूर्णता पर लिखा आलेख मेरे लिए नया था.ये आलेख पढ़ने के बाद मैं अपने आपको इस आन्दोलन के ओर करीब पाता हूँ.अंक में अच्छा लग रहा है,पहले पढ़ रहा हूँ.शहर में किराए के मकान को लेकर पते बदलते रहने के झंझट से मैंने पत्र-पत्रिकाएँ गाँव के पते पर मंगवाई है.अक्सर पिताजी फोन करते ही कहते हैं,अरे तेरे वो फलां किताब या पत्रिका आई है.ले जाना.इसी बहाने मैं गाँव हो आता हूँ,किताबें/ पत्रिकाएँ ले आता हूँ.गिनती की पांच पत्रिकाएँ आती हाल तक तो. वसुधा,कृति ओर,उदभव,रंग संवाद,कला समय,रंगवार्ता,सबोधन,प्रतिश्रुति,मरुधर,...ये वो है जिन्हें मैं पैसे काट कर मंगवाता हूँ,बाकी ज़बरन मेरे लिए बेकाम की पत्रिकाएँ भी बहुत सी है जो यदा कदा घर आती है,घर आए को तो सभी चाय पिलाते ही हैं..जिनका नाम लेना यहाँ मुनासिब नहीं समझता.अरे हाँ एक बात और की बहुत सी स्तरीय पत्रिकाएँ मैं ऑनलाइन या उनके पी.दी.ऍफ़. अंक नेट पर मिल जाते हैं उन्हें पढ़ लेता हूँ.बस यही .कुछ ओर पढ़ने की ललक और पत्नी के द्वारा पैसे खरचने की स्वीकृति के बाद बाकी के बारे में सोचेंगे.
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