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15 जून, 2012

कविता-कुछ देर


देर तक
देखना चाहता हूँ
केंद्र में
मेरी नज़र के
ठीक सामने
रखना चाहता हूँ

डालियाँ और उनके
हिलते हुए
पत्ते,फूल,फल
और कोंपलें
निहारना चाहता हूँ
कुछ देर

अनजान बच्चों संग
बतलाना,खिलखिलाना
और हंसना चाहता हूँ
बिना खोये
लाभ-हानि के गणित में
डूबे बिना
तैरना चाहता हूँ
फालतू करार दे दिए
वक़्त के समुद्र में
हिचकोले खाना चाहता हूँ
कुछ देर


जंगलों,बीहड़ों
और आदिवासी दोस्तों की
संगत करना चाहता हूँ
कुछ वक़्त जाया
दबी हुयी
इच्छाओं के नाम
खपना चाहता हूँ
कुछ देर
औरों में खोते हुए
चलना चाहता हूँ
कुछ देर

निराकार सपनों
के हित आकार गड़ने
की कोशिश
करना चाहता हूँ
तमाम फालतू काम
कुछ देर
गूंगा-बहरा होकर
समझना चाहता हूँ
दुनियादारी का ठाठ
फिर से
कुछ देर

बतलाना चाहता हूँ
अभी तक के
सभी सगों,मित्रों
और दुश्मनों से
लागलपेट रहित
दिल खोलकर
करना चाहता हूँ
संवाद बेहतर
जीवन का अंदाज़
चखना चाहता हूँ
कुछ देर

किलों,गुफाओं
और पहाड़ों के इर्द-गिर्द
मैं टहलना हुआ
मिलना चाहता हूँ
बीते वक़्त से
अतीत की स्मृतियों को बुला
गले लगाना चाहता हूँ
कठ्ठे
तमाम विलुप्त होते
जानवरों से कहना चाहता हूँ
जंगल होते शहर की कहानी
कुछ देर

गायब होती
प्रतिरोध की संस्कृति से
अलग जाकर
कहना चाहता हूँ
अपना पक्ष भी
तथ्यों सहित
रखना चाहता हूँ
रुंधाते गलों से
कुछ देर
चिल्लाना चाहता हूँ
चुप हो
सबकुछ सहने के समय में
तनिक बोलना चाहता हूँ.
व्यवस्था के विरुद्ध
कुछ देर


और आखिर में
बैठकर किसी
ऊंचे महल के झरोखे में
देर तक देखना चाहता हूँ
हलचल बस्ती में
हरकतें तमाम लोगों की
गिनना चाहता हूँ
आवाजाही
मौसम के
बहकावे में आए
हवा,बादल,धुप-छांव
की निजी इच्छाएं
पूछ लेना चाहता हूँ
कुछ देर

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