ये मेरी पहली सरकारी नौकरी का मुकाम है। वैसे बता दूं हड़माला वे तमाम जगह कहलाती है जो पथरीली हों।यहाँ भी मेरे बच्चों और उनके माँ-बाप का जीवन भी कुछ हड़माला की जात का ही है। नौकरी को पांच साल हो चले।वेणीराम जी का गोरधन पांचवी में आ गया है।स्कूली इमारत में लगे बर्र-ततैया के छत्ते में गासलेट छिटककर कर उन्हें हटाने का जिम्मा उसी के नामे है। मधु भील रोज ताले खोलकर घंटी लगाती है।राधेश्याम दो कमरों का झाडू लगाता है। कद में सबसे बड़ा और अब जाकर पांचवी की किताबें कांख में दबाये स्कूल आने वाला रामलाल हमारे मैदान में लगे पेड़-पौधे देखता है। इन सभी को अपनी सेवा के बदले महीने के आखिर में ईनाम में मिलती पेन्सिल और कोपी नज़र आती है।
एक चम्पालाल है जो अक्सर छुट्टी मारता है और खुद को विनोद कहता है।अफसोस उसका एक बार नाम लिखा गया,सरकारी दस्तावेज में मुश्किल से सुधरेगा। एक फोकर है जिसे मैंने भर्ती करते वक़्त उसे मंगल नाम से नामकरण कर दिया। एक का नाम 'भूरी' लिखते-लिखते लास्ट मोमेंट में 'गौरी' नाम दिया गया।बाकी बहुत से दोस्त जैसी शक्लों के बच्चे मेरे जिम्मे हैं। केसर,सुमन,कृष्णा,भारती,विद्या,ममता ये तमाम लड़कियां है। पास के ठीकरिया स्कूल तक भी चली जाए तो इनके हालात सुधर सकते हैं। हड़माला,मुझे अपने घर आने के बाद भी मुझे बहुत याद आता है।बहुत सादगी और अपनापन बसता है यहाँ।
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