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27 जुलाई, 2012

27-07-2012

चौबीस जुलाई की शाम पांच बजे होंगे अचानक एक नंबर मेरे मोबाईल की स्क्रीन पर चमका जिस पर कभी मैंने डायल करके नो रिप्लाई टोन पायी थी। ये डॉ नन्द भारद्वाज का नंबर था। वही नन्द बाबू जिनकी कविताओं का मैं भी कायल था। अपनी माटी की इज्ज़त बढाने के लिहाज़ से हमने उन्हें इस वेबपत्रिका  सलाहकार मंडल में शामिल कर रखा था। अपने किसी प्रोजेक्ट के तहत हो रही उस यात्रा में पंद्रह मिनट बाद वे आकाशवाणी चित्तौड़ के परिसर में थे। ये वही स्थान था जिसकी नींव उन्होंने ही रखी थी। मैं अपने साथियों अब्दुल सत्तार मियाँ और प्रीति पोरवाल दी के साथ योगेश कानवा जी की कहानी 'एक मरी हुयी नदी' का नाट्यरूपांतरण करके स्टूडियो से निकला ही था कि हमारे जीतेन्द्र सिंह कटारा जी के कक्ष में जा टपका। जहां हमारे नन्द जी बैठ बतिया रहे थे। मैं भी वहाँ चाय आने तक बातों में शामिल होता रहा,कभी खाली हुंकारा भरता तो कभी कभार अपने विचार भी सरकाने की ताक  में समय बिताता रहा।

अक्सर हमारे शहर आये आत्मजन को मैं किला घुमाता हूँ। इस बार नन्द जी को हमारी ही एक और साथी रजनी उर्फ़ जोया ने घुमाया।खैर।मुझे दुःख इस बात का था कि  शुरू से ही पता लगता तो हम ढंग से एक बड़े आयोजन का प्लान कर सकते। ये शिकायत हमने नन्द जी को दो तीन मर्तबा कही भी।उनके प्रोजेक्ट में आगामी समय में संभव हुआ तो चित्तौड़ में मीरा को लेकर एक बड़ा आयोजन करना शामिल था। एक फोन के बाद हम सत्यनारायण समदानी जी की कुटिया में थे। ठन्डे वातावरण में शुरू हुयी बातचीत के बीच चाय,मिठाई,नमकीन आई। एक फीकी के साथ दो मीठी चाय। फीकी चाय वाले कप में हमेशा की तरह एक चम्मच डाला हुआ था। मुझे ऐसे कप पहचानने की आदत थी।अक्सर मेरी बातें और संगत शुगर के मरीज बुजुर्ग साथियों के साथ ही होती रही है।मैं बातचीत में अप्रत्यक्ष रूप से शामिल रहा। इसी बीच नन्द जी से मशविरा करके हमने एक घंटे की संगोष्ठी के लिए वक़्त जुगाड़ लिया। कुछ प्रगतिशील मित्रों को फोन और मेसेज कर मामला पुराणी पुलिया के पास शेखर कुमावत के संस्थान पर बैठा। नास्ते और माला का जिम्मा उसी के माथे पटक मैंने ज़रूरी लोगों को फोन से बात भी की ताकि ठीक ठाक संख्या हो जाए तो अपनी इज्जत बची रहे।

रात नौ बजे शुरू संगत रात साढ़े  दस तक चली। नन्द जी के साथ डॉ. सत्यनारायण व्यास के इशारे पर सभी रचनाकारों ने भी अपनी अपनी एक-एक रचना सरकाई।साथी राजेन्द्र सिंघवी से राय कर नन्द जी का अपनी माटी की तरफ से भी शॉल  ओढा  कर सम्मान किया।इस अनायास मिली संगत से हम बहुत खुश थे।हालांकि नन्द जी के होटल वाले 106 नंबर वाले कमरे में उस वक़्त ए.सी. लगा हुआ था मगर उस पंद्रह आदमियों की केपेसिटी वाले सभागार में हमने उन्हें पंखे में ला बिठाया। होटल के ही बेसमेंट हुई इस संगत में ठीक बाहर से निकलते रोड़ से भी गाड़ियों के होर्न आदि छनकर हमारे बीच चक्कर काटते रहे। कुलमिलाकर मामला जम गया। 

दूसरे दिन मैं नन्द जी के एक फोन पर होटल पहुँचते ही उन्हें शहर में ही गोरा बादल स्टेडियम दिखाने गया। अफसोस इतने बड़े शहर में एक भी ढंग का ऑडिटोरियम नहीं।ये अहसास मेरे लिए भी बहुत बुरा था। एक-दो मैदान हैं जहां टट्टी-पेशाब का भी ढंग से इंतज़ाम नहीं। मंच हैं मगर ग्रीन रूम नहीं।हमारा अगला पड़ाव आमराय के मुताबिक़ श्री सांवलिया विश्रांति गृह था। अच्छा हुआ नीचे वाले सभागार में एक सेल लगी हुई थी।असल में वही सेल वाली जगह देखने की उत्कंठा के साथ नन्द बाबू और मैं सीड़ियाँ उतर कर आगे बढ़े । एक अटाले की तरह धीरे-धीरे कबाड़ कक्ष में तब्दील होने को आतुर वो सभागार आखिर हमें नहीं जचा। यहाँ भी ग्रीन रूम,लेट-बाथ  जैसा कोई जुगाड़ नहीं था। खैर ये तलाश प्रताप नगर स्थित पन्ना ट्यूरिस्ट बेंगलो तक ले गयी। दो बड़ी गिलासों में चाय सुड़कने के साथ हम कुछ देर तक  यहाँ के प्रबधंक महोदय की बातें गले में उतारते रहे। यहाँ कुछ हद तक संतोष हुआ।

अंतिम पड़ाव कह ले जिसके लिए नन्द जी और डॉ. सत्यनारायण व्यास सालों से इंतज़ार में थे। ये था व्यास जी का छतरी वाली खान के पास का घर। यहाँ नन्द बाबू बहुत पहले आये थे तब किसी संगोष्ठी में कविता पाठ  जैसा कुछ हुआ था। ये वही आवास है जहां साहित्य के बड़े बड़े लिख्खाड़ आये/रहे/जीमे और बतियाये हैं। नामवर सिंह,काशी नाथ सिंह,विश्वनाथ त्रिपाठी,स्वयं प्रकाश,सदाशिव श्रोत्रिय इतने ही नाम याद रहे।इसमें नन्द बाबू का नाम भी जुड़ गया। नन्द जी एक बड़े अफसर होकर भी कभी उन्होंने अफसराना रवैया नहीं रखा। बाकी धीरे-धीरे याद हो जायेंगे।हिन्दी में जो एम.ए. कर रहा हूँ। पहले गरिष्ठ से गरिष्ठ से विषय पर विमर्श हुआ। मैं ज्यादातर समय एक शालीन श्रोता की तरह मौजूद रहा। भोजन आदि के इंतज़ाम के बाद चन्द्रकान्ता व्यास जी भी हमारे बीच थी। दो रचनाकारों,दो मित्रो,दो सगों का ही ये मिलन था। कोई औपचारिकता नज़र नहीं आयी।अंत में एक चाय के साथ किताबों का आपस में लेनदेन हुआ।चन्द्रकान्ता जे एक लोक गीतों के संकलन वाली किताब नन्द बाबू ले गए और नन्द जी ने उनका कुछ महीनों पहले छपा संग्रह आदिम बस्तियों के बीच व्यास जी को भेंट किया।

इस तरह नन्द जी को थोड़ा सा करीब से जानने का ये मौक़ा मैं छोड़ना नहीं चाहता था। बस अफसोस मैं उन्हें मेरे किराए वाले कमरे पर चाय पर नहीं ले जा सका।ये काम फिर कभी निबटाने के इरादे से हम सर्किट हाउस वाली गली के पास से बिछुड़े,वे जयपुर वाले रास्ते पर कार की दिशा लेते हुए चल पड़े।और इधर मैं घर पर  रोती हुयी बेटी का दिल बहलाने हेतु केले वाले दादा के ठेले की तरफ बढ़ा। ये संगत का दिन मेरे मूंह से कभी भी उगलवा लेना मैं यही सबकुछ हूँ-ब-हूँ बोल दूंगा जो यहाँ डायरी में लिखा है।

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