दिल किधर जाए जब बहुत से रास्ते आवभगत को आतुर नज़र आये. अचानक फोन बजाकर लोग घर आ जाएँ और बतियाये तो दिल क्या करें.किसी बहाने दिल किसी पुरानी फिल्म में उलझ जाए तो बाकी कामों के निबटाने का जुगाड़ कैसे लगे.क्या पता.
बहुत सी बार फ़िल्मी गीत भी बड़े अजीब होते हैं पत्नियों के बीच शक पैदा करने को उतारू हो मानों आग लगाने और बुझाने का ठेका इन्हें ही दिया गया हों.बहुत सी बार फ़िल्में इसी तरह की सोच से प्रेरित हो मिल जाती है.
'इजाज़त' जैसे फिल्म मैंने कैसे अपने घर में चुपके से देखी मेरा दिल जानता है.विरोधी माहौल में कल की शाम दो घटे घर में ही चित्तौड़ के स्वतंत्र लेखक नटवर त्रिपाठी जी के साथ कैसे गुज़ारे दिल जानता है.फुरसत के लम्हों के बीच ज्ञान का पिटारा सामने था मगर दिल जानता है कितना पाया कितना ढुल गया.
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