'बारिश' विषयक क्षणिकाएं
(1)
अष्टमी पूरी रात
चित्तौड़
अकेला
भीगता रहा
लगातार
घिरा रहा
भारी बारिश
से
अब तक जारी है
सफ़र
एक दूजे को
प्यार जताने
और गले लगाने का
आलम ऐसा बहका
न चला पता
कब रात बीती
कब हो गयी
नवमी की भोर
(चित्तौड़-पुर्लिंग,बारिश-स्त्रीलिंग)
वो आती रही
जब भी
बताये-बिना बताये
मैं
मन लगाकर भीगता रहा
बताये-बिना बताये
हम उतरते रहे
गहरे पेटे में
इस तरह
ज़िंदगी में घुलती रही
प्यार की मिठास
(3)
जब भी आती है
बारिश
अकेली कहाँ रह पाती है
भला
प्रीतभरी मुलाकातों
से गूंथी हुयी
कहानी की तरह
पसर जाती है
कौने-कौने
और
अपनों के उलाहनों से
लबरेज़
बारिश
व्यस्त रहती है
बहुत बार
इशारों में अनकहा कहने को
उकसाती है
आती है
अपने बाकी कामों की फेहरिश्त
के साथ
जल्द निबटाने में
हो जाती है
व्यस्त
फिर से
बहुत से लोग
रह जाते हैं
अनभीगे
(4)
बारिश में
छत से चूते
पानी का रेला
टांड से गुज़रता हुआ
लिपटता है
दीवार के सीने से
कठ्ठा
मिलता है
बिछुड़े यार की तरह
नींव में उतरने
को आतुर
वो रेला
कितना बेताब है
हम क्या जाने
कोठियों के मालिक
जिनकी छतें चूती नहीं
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