'वक़्त ' शीर्षक से क्षणिकाएं
(1)
आयेगा
वक़्त
मेरे मन का
सोचते हुए
गुज़र गया
एक पूरा दौर
पीछे
छूट गया कहीं
गलती से
अच्छे वक़्त से
लबरेज़ एक थैला
हो गया इधर-उधर
(2)
अतीत के दड़बेदार
वक़्त में
ढ़ला है
सबकुछ
लटकी हुयी
बंधनवार सा
एक जगह
इकट्ठा
भूंगली से
चुल्हा फूंकती
माँ
टूटी डंडी के कप में
चाय सुड़कते
पिताजी
पास ही
तीसों बार
बत्तीसी
बिठाती और
निकालती
दादी
अफसोस
सबकुछ
अतीत का हिस्सा है
'(3)
बेहतर वक़्त
की तलाश में
लगातार
चल रहे हैं
गेंती,फावड़ा और कुदाली
थके नहीं है
अब भी
बने हुए हैं
पथ पर
तगारी,सब्बल और कुल्हाड़ी
बेहतर वक़्त
की तलाश में
लगातार
हंस रही है
खेती,किसानी और दिहाड़ी
आशाओं की नाव खेते
फुसफुसाते
अब भी
डटे हुए
पथ पर
हारे,दबे और कुचले लोग
बेहतर वक़्त
की तलाश में
(4)
मैं सलीके से
वापरना चाहता हूँ.
ये अच्छा वक़्त
टूटे हुए बटन अवेरती
माँ के हाथों
उपजती बारीक तुरपाई
की तरह
रचना चाहता हूँ
मैं भी
कुछ सार्थक
इस दौर में
मगर
उकसाता है
चालबाज़ ज़माना
मुझको
लूटने-खसोटने
और
यथासंभव
दबाने-दबोचने
के गुर सिखाता हुआ
राह भटकाता है
और फिर
दया आ जाती
इस खाली वक़्त पर
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