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02 जनवरी, 2013

कुछ नयी कवितायेँ-17

Photo by http://mukeshsharmamumbai.blogspot.in/
(1)
अफसोस
हर तरफ से
फटा है
टेंट हमारा

साथियों

मगर जहां तक भी जाकर
लगाओगे ठेगरे
अकेले नहीं हो तुम
समझ लेना

इस सड़क पर
तुम्हारी हथेलियों में शामिल रहेंगी
हमारी भी हथेलियाँ
एक अतिरक्त आग के साथ
थोड़ी सी गरम

हाथ लिए हाथों में
जमा कर रखा है हमने भी
सुई,धागे और कपड़ों की कारियों
वाली शक्लों में
विरोध,गुस्सा,औए हकीक़त
सब कुछ सिल देंगे
इस बारी

साथ हमें भी ले लो
कुछ नारे हम भी गढ़ेंगे
बनेंगे
कुछ रैलियों के हिस्से
हम भी
आखिर कब तक रहेंगे मौन

एक मांग हमारी भी
रख लो

तुम वहीं के वहीं रहना
डटकर
नारों और
अपनी फुफकारों सहित

दिल्ली रेप केस में से
'दिल्ली' हटा दो यारों
ये आम बीमारी है
फ़ैली है कितनी-कितनी
दूर तक
तनिक विचारों

जब रैली
दिल्ली से चलकर गुज़रे
खैरलांजी से छत्तीसगढ़ की सोनी सोरी के घर तक
हाँ कुछ और जगह नहीं जायेंगे तो
न मानवता माफ़ करेगी हमें
इस बारी
फिर 'अवसरवादी' करार दे दिए जायेंगे
हमारे कदम

भाई
आखिर में एक ठेगरा
वहाँ भी लगा देना
जहां से तुमने
मानसिकता के स्तर पर
रिसना और गिरना शुरू किया था।

शुरू किया था जहां से
चिंतन बंद
जहां से अपनी राय देना
बंद कर दिया था तुमने

(दिल्ली रेप केस में घर घुसे एक इंसान का टी वी पर तमाशा देखते हुए
और अरुंधती रॉय के बयान पढ़ने के बाद)

(2)

हम
खुद ही खुद पर अंगुली उठाने लगे हैं
इन दिनों
खुद को कठघरे में
खड़ा करके
रोज़ एक मुक़दमा लड़ने लगे हैं

हमारी ही करतूतें
अखरने लगी हमें
अब अपने गिरने का अहसास होने लगा है

चाँद,तारे और ये सूरज
सब के सब
शक की निगाह से देखने लगे हैं
कि अब हम
आदमजात को
शर्म आती है अपने होने पर

(3)
चुनिन्दा लोगों के हित
टिक टिक करती है ये घड़ियाँ 
वक़्त नहीं बदलता 'हमारे लिए'

वक़्त है कि गुजारिश करता है
बहुत से बाकी रहे कामों के साथ
हाँकता है हमी को

डांटता है
'फुरसत' के चंद पलों की मांग पर
हड़काता है हमें इस कदर 

मानो
हमारे न चलने से
रुक जायेगी देश की प्रगति

किसी की जेबें खाली रह जायेगी
आ जाएगा फरक
आमदानी में किसी के

ग़र हम रुक जाए पलभर भी
ज़मीन पर
चलते-चलते लें-लें इत्मीनान की साँसे

ये कम फीसदी लोग
गालियाँ देने लगेंगे
हम अधिसंख्य को

अजीब वक़्त है यारों

वो 'कुछ' होकर भी अधिपति हैं
और 'हम' बहुसंख्य होकर भी
दया के पात्र

अज़ीब वक़्त है 


*माणिक *

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