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25 फ़रवरी, 2013

25-02-2013

किसी भी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थान और आन्दोलन में जब केवल बुज़ुर्ग दोस्त ही बागडौर अपने हस्तगत रखेंगे।जब जानकार और रुचिवान युवा साथी प्रायोजित ढंग से ऐसे आयोजनों से दूर रखे जायेंगे।जब जब  अपने आसपास चमचे पैदा किये जाने की संस्कृति फलेगी।बीते दो दशकों में जब एक भी ऐसा युवा तैयार नहीं हो पायेगा जो आयोजन का प्रेस नोट तक तैयार कर सके तो हमें उन पर कैसे फक्र होगा।क्या हमारा अंदाज़ सही है कि क्या उनकी भौतिक उपस्थिति के बगैर वो संस्था/आन्दोलन/अभियान उसी वक़्त दम तोड़ देगा।क्या कभी उन्हें उनकी कार्यशैली का आभास होगा।क्या हम कभी हमारे कुनबे के उन लोगों तक भी पहुँच पाए है जो इसी जिले में रहते है।बहुत से सवालों के साथ मन में एक सोचा समझा बहिस्कार फल रहा है।
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निम्बाहेड़ा में हुई राष्ट्रीय संगोष्ठी में जाना हुआ। विषय था ''भारतीय वांग्मय में दलितोत्थान'' मित्र कनक जैन और राजेन्द्र सिंघवी जी ,एकदम नए ढंग का वातावरण।कुछ असहमतियां,कुछ सार्थक विमर्श।कुछ खींचातानी।कुछ छिलाई।कुछ खिल्ली उड़ाई जैसी रस्मे निभाई।वहाँ एक और दोस्त रवींद्र उपाध्याय जी ने अच्छी झांकी जमा रखी थी।सर्वगुण संपन्न वक्ताओं से सजा हुआ मंच।विषय पर राजेन्द्र जी को सुना तो जाना सार्थक लगा।दोपहर एक से पांच बजे तक चले आयोजन में बहुत बार खीज हुई।मगर कुछ वक्ताओं ने दिल जीत लिया।कई बार लगा कि हम भी बहुत सारे मायनों में बेहतर है।आयोजक और प्रायोजक होने की अपनी पीड़ा है।
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बीते एक पखवाड़े में एक ही तरह की अनुभूति बार-बार हुयी है कि अब समय आ गया है जिस ढंग से बेढंगे वक्ता पैदा हो रहे हैं तो वक्ताओं के बजाय श्रोताओं और दर्शकों को मानदेय देने की पहल की जानी चाहिए।सुनना बड़ा पीडादायक हो जाता है जब हमारे 'माननीय' वक्ता 'चौतरफा' बोलते है।असल में किसी 'पद' पर होने भर मात्र से उन्हें कोई ठीक वक्ता मान लेने की आयोजकों की क्या मजबूरी रही होगी खुदा जाने मगर एक श्रोता की मजबूरी तो है शायद कतई नहीं।

एक श्रोता और दर्शक तो बेचारा घर-परिवार के ज़रूरी काम टालमटोल करके बचता-बचाता हुआ आयोजन स्थल तक आता है।वहाँ किसी संगोष्ठी के बजाय रामलीला मंचन की कूदा फांदी देख माथा पकड़ लेता होगा।वो तो ठीक है आयोजन के आखिर में होने वाले 'भोजन प्रसाद' की  बार बार की उदघोषणाएं हमारे कुछ प्रायोजित श्रोताओं को वहीं रोक लेती है और यूं आयोजनों का 'माजना'(इज्ज़त) रह जाता है 

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