मेरा मानना है कि वैचारिक कट्टरता पालने से 'इंसान' इंसान नहीं रह जाता,बस वह एक लबादे को ढ़ोता ही है।साथी पीछे छूटते जाते हैं।मरते समय साथ में केवल ''वैचारिक सिद्धांत'' रह जाते हैं।इस यात्रा में आदमी 'आदमी' नहीं,दुश्मन नज़र आने लगते हैं।भाड़ में जाए ऐसी कट्टरता। बस थोड़ा सा विवेक हो कि हम चीजों और अपने विचारों को मांज सके।दूसरों को सुन सके।''हम ही आख़िरी और श्रेष्ठ हैं।'' ऐसी मुगालता हमें नहीं पालनी।वैसे भी इंसानियत बची कहाँ है।आओ मित्र बनाएं,दुश्मन नहीं।अपनी भी कहें,दूजों की भी सुनने का अनुशासन सीखे।आखिर वे भी इंसान हैं जो दूसरी विचारधारा से प्रेरित हैं।इन सभी के इतर 'मानव' केन्द्रित यदि कोई विचार या सिद्धांत हैं तो मेरा झुकाव उसी तरफ समझा जावे।
01 मार्च, 2013
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