फुरसत जब भी पास होती है बहुतेरे विचार एक साथ पास आने लगते हैं। पत्नी की भाषा में कहूं तो शाम को दिया बत्ती के वक़्त बेटी को अंगरेजी के अनाम लेखकों की कवितायेँ रटाते में जुटा ही था कि शास्त्रीय गायन याद आया। टेक्स और बचत का हिसाब भी इसी समय दिमाग में आना होता है। इसी गोधुली में राशन की सूचि से टपकते कुछ नाम कान में इक्कठ्ठे होते रहते हैं। आजकल आटे दाल के अलावा भी बहुत कुछ लाना होता है घर चलाने को। मच्छर बत्ती से लेकर पंसारी की दूकान से लीली फिफर तक। बच्चों के हित मंच चोकलेट से लेकर डेयरी का दूध ।घर और ऑफिस से फुरसत मिले तो आदमी ज़न्नत सा आभास करता है।खैर ऐसा आभास भी मिले तो ना।
मौके की नजाकत देख मैंने नेट से अपने कम्प्युटर में हमारे राष्ट्र के महान कर्नाटकी गायक डॉ एम् बालमुरली कृष्णन को ट्यून किया। काम में स्फूर्ती और रिफ्रेश करने के साथ ही ध्यान का-सा आभास कराने में मेरी ये रूचि मुझे हमेशा सार्थक ही लगी। ये संस्कार मुझे स्पिक मैके ने बक्शे। इस तरह मुझे बहुतों ने बिगाड़ा उनमें स्पिक मैके सबसे पहला नाम है। हालांकि बालमुरली जी को बहुत बार सजीव रूप में सुन चुका हूँ। मुझे लगता है एक तो गायन हमें अपने से जोड़ता है दूजा ऐसा शास्त्रीय गायन जो दूजी भाषाओं की रचनाओं के कारण विशुद्ध रूप से ध्यान के परपज को सोल्व करता है।ऐसे गरिष्ठ नृत्य-संगीत सुनने और देखने की ये बीमारी पालने के लिए संगीत की समझ होना रत्ती भर भी ज़रूरी नहीं है।इस बीमारी के बाद एक मरीज का वादा है आप वो नहीं रहेंगे जो आप हैं।मेरे साथ ज्यादा रहने वाला कोई विचार के स्तर पर बिगड़ सकता है।एक तो लगभग नास्तिक दूसरा घुमक्कड़।
हाँ फिर वहीं आते हैं एक बातचीत में वे बालमुरली जी कहते हैं कि वे अपनी आठवीं की पढ़ाई भी बड़ी मुश्किल से कर पाए थे। मगर उनकी तपस्या और संस्कृति के परचम के कारण आज वे हमारे देश के आईकोन हैं। मतलब आदमी पढ़ाई -लिखाई के बगैर भी बड़ा बन सकता है। उनका संगीत उत्तर और दक्षिण भारतीय के बीच की दूरी को तो पाटेगा ही साथ ही किन्ही भी दो देशों के इंसानों को जोड़ सकता है।इस बार भी अपने कुछ मित्रों के साथ बारह दिन तक कोलकाता,बनारस में रहकर आश्रमनुमा जीवन बिताने का ठान लिया है।ताकि साल भर अपनी इतर जिम्मेदारियों को ढ़ंग से निभा सकूं।
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