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नसरगंडी की तरह
लगभग बेकाम होने को आतुर
हमारा नया समाज
फुंफाड़िये के जंजाल सा
लगता है
ये आधा शीशी की तरह
कंटीला और चिपकू हो पड़ा है
गाजरघास की तरह
हरेपन में काला ज़हर छिपाये
लगभग दोगला
कांख में दांतरी छिपाये
एक तरफ मुस्कराता है स्याला
सोचता दूजी बात है
बरताव तीजी की तरह करता है
हमारा नया समाज
(2 )बंजर होती ज़मीन
कबूलना ही पड़ेगा कि
हमारी ज़मीन अब बंजर हो गयी है
हर तरफ से और हर तरह से बंजर
तुम विदेशी खाद देना शुरू करो
दिल्ली से
हम इधर बैतूल की तरफ से
सूखा गोबर छिड़कते हैं खेतों में
बेढंगे समाज का
यूं बेतरतीब
अंकुरित होना,खिलना और बढ़ना
असल में
खौफज़दा सपना लगता है अब
कौन किसान खुश होगा भला ?
इन ज़हरीली फसलों को
लहलहाते देख
कौन गा सकेगा ?
बेफिक्री के गीत
बेफिक्र बैठ मेढ़ो पर
माणिक
अध्यापक