हमारे साथी चेतन खमेसरा जी की माताजी गुज़र गयीं।दिल से दुखी होकर भी हम उदयपुर नहीं जा सके। न उठावने में न अंतिम संस्कार में।कल खबर मिली क़मर मेवाड़ी जी की पत्नी चल बसी। उन्हें कभी नहीं देखा मगर साहित्यिक बिरादरी के क़मर जी के प्रति मन में दुःख तो है।इसी बीच जिन्हें कभी नहीं देखा हो और वे चले जाएँ उनमें एक नाम शामिल कर रहा हूँ जिन्हें खूब सुना और सुनाया हमारी शमशाद बेगम। वे भी चल बसी।चल बसने के बाद ये तमाम लोग महान दिखने लगे।इनसे जुड़े लोग दया के पात्र।सच तो ये भी है कि मैंने खुद को भी इन दिनों संवेदनाओं के केंद्र में देखा।
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घर की संस्था का एक घरेलू आयोजन इक्कीस को निबट गया।बुलाये डेढ़ सौ को।नास्ता सत्तर का मंगाया।कुर्सियां सौ लगाईं।आये पचास।एन वक़्त मामला बिगड़ते हुए बैठ गया। आयोजन के ठीक चार बजे वाले शुरुआती समय पर ही आंधी और बूंदाबांदी के बीच नहीं आने वालों को एक मुक़म्मल बहाना और मिल गया।कुछ 'नाजोगे' तो खैर आने वाली थे भी नहीं।कुछ लोग शहर में केवल आमंत्रण योग्य सुन्दर नामधारी होते हैं।हर आमंत्रण सूची उनके बगैर अधूरी ही रहती है।वे हमारे समाज और संस्कृति के सच्चे पहरेदार हैं।उनकी दुकानदारी उनकी घर-गुवाड़ी से ही चल जाती है।शायद वे हमारी अगली सूची में ना मिले।
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