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28 अप्रैल, 2013

28-04-2013

उटपटांग विचार।पांच के चिप्स,दस की चाय,सात के भुंगड़े और अस्सी की बियर।कितने हुए? एक सौ दो। ये सौ,दो रुपये बाकी रहे। दांतों से चिप्स की थैली फाड़ता बच्चा।चाय की गिलासें उठा उन्हें टोंटी की धार की सीध में रखता एक और बच्चा।भुंगड़े खाते हुए आदमियों को टूंगता हुआ एक बच्चा।बियर की खाली बाटली को झपट कर घर ले जाने की ताक में एक बच्चा।इन सभी दृश्यों के बीच सौ के नोट पर अबाध मुस्कुराते गांधीजी। 
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एक थके हुए दिन का पीछा करती रात।थके मांदे दिन का हथियार डालता चहेरा और फिर कूलर की भर्र-भर्र आवाजों के बीच रात की आमद।सपनों की दस्तक जहां गोरे-कच और काले-कट सभी तरह के इंसानों का घालमेल भरा जीवन।चेहरों से गायब होती आदमियत।दोगले लोग और दिखावटी शैली।जिससे बात करते हैं उसे देखते नहीं।जिसे देखते हैं उससे किसी दूजे की बात करते हैं।खुद को छोड़ लोगों को दुनिया में सब बेकार और निंदा योग्य लगता है।
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सपनों के बीच मानचित्रों में कम होते गाँव।हेंडपंप पर पानी भरती औरतें।तगारी से गेंहू उफनते बच्चे।नालियों को साफ़ करती बच्चियां।सपनों में भी एक साफ़-सुथरी चोईस।केवल सादे और सही सपने।रात ने बहुतेरे रंगीन सपने बेचने की भरसक कोशिश की।मगर खरीददार टस से मस नहीं।रातभर बहुत सारे सपने दिखाए उसने,मगर पसंद एक भी नहीं आया।तहों के साथ सारे सपने अपने आलियो में जा बैठे।ये जागने की हद थी।

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