किसे शुक्रिया कहूं। लम्बी फेहरिस्त है। बंगाली संस्कृति के बीच सात दिन कैसे निकले एकदम फुर्र से। वहाँ की शब्दावली बोलते बोलते तो तमाम शब्दों के आगे 'ओ' की मात्रा लगाने लगा हूँ। स्पिक मैके के वैश्विक अधिवेशन में वक़्त गुजारने के बाद शास्त्रीय और लोक कलाओं का ज्ञान खुद पर लपेटे ठसाठस अनुभव कर रहा हूँ।बाद के दो दिन बनारस के घाट पर घुमक्कड़ी और सारनाथ में आत्मज्ञान लेने के बाद आखिर हम चित्तौड़ लौट आये।सभी को खबर हो जाए कि सकुशल लौट आये हैं क्योंकि एक ज़माना था जब लोग यात्रा जाते समय वापस लौट ही आये कोई गारंटी नहीं होती थी इसीलिए पूरे गाँव के लोग यात्री को गाँव के बाहर पथवारी तक छोड़ने(सी ऑफ़ करने )जाते थे और और तो और वापस सखुशी लौट आने पर पथवारी पर ढ़ोल नगाड़े के साथ लेने जाते थे।हमें छोड़ने एक आदमी आया था राजेश जी चौधरी और लेने एक आदमी आया डॉ ए एल जैन।छोड़ने-मेलने की संस्कृति संकड़ी होती जा रही है।
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कलकत्ता की क्या कहें। घर के बाहर पोखर।पोखर में ही नहाना,कमल उगाना,मछली पालना।वहाँ के खानपान में मछली-अंडा शाकाहारी की श्रेणी में दाखिल होता हुआ।जिसे देखो सभी मिठाई के दास।चावल और दाल बगैर जीवन अधूरा। पूरो बंगाल भालो छे।आमी वहाँ खूब मस्ती करी।दो बरसाती शामें और एक पूरी रात का चाँद मेरे आसपास है अब भी।एक तरीके के खाने से उपजी ऊब के बीच लगातार पसीने से सना शरीर।दिन में तीन स्नान के बाद भी चिपचिपा बदन। एक बिना आराम का शेड्यूल।खाओ-देखो,फिर खाओ,फिर देखो,आखिर में फिर खाओ और सो जाओ,तड़के उठ योग करो।एक हाई डोज की तरह स्पिक मैके का कलाकारी हमला।कुछ वक़्त के दरमियाँ ही बहुत सी चीजें दिल में घर बनाती हुयी। ठेठ का कलकत्ता और वहाँ सस्ता जीवन।हुगली के किनारे की बोटिंग और आम आदमी का जीवन।गज़ब।शहर के सारे नाले, नदी में गिरते हुए।नहाने के हित हुगली में घाट पर साफ़ पानी ढूँढने की बेवकूफी का बाद में आभास।लोग बड़े भले।एक भी भिखारी नहीं।चोर-लुटेरे तो दिखे तक नहीं। आँखों के सामने आते सस्ते आम और गलियों में बिना टोंटियों के खुले नल। सबकुछ ट्राम,लोकल ट्रेन,रिक्शा,टेक्सी,कार जो जी चाहे।शान्ति निकेतन नहीं जा पाने का दुःख।वेल्लूर मठ और दक्खिनेश्वर जा पाने का सुख।
कलकत्ता की क्या कहें। घर के बाहर पोखर।पोखर में ही नहाना,कमल उगाना,मछली पालना।वहाँ के खानपान में मछली-अंडा शाकाहारी की श्रेणी में दाखिल होता हुआ।जिसे देखो सभी मिठाई के दास।चावल और दाल बगैर जीवन अधूरा। पूरो बंगाल भालो छे।आमी वहाँ खूब मस्ती करी।दो बरसाती शामें और एक पूरी रात का चाँद मेरे आसपास है अब भी।एक तरीके के खाने से उपजी ऊब के बीच लगातार पसीने से सना शरीर।दिन में तीन स्नान के बाद भी चिपचिपा बदन। एक बिना आराम का शेड्यूल।खाओ-देखो,फिर खाओ,फिर देखो,आखिर में फिर खाओ और सो जाओ,तड़के उठ योग करो।एक हाई डोज की तरह स्पिक मैके का कलाकारी हमला।कुछ वक़्त के दरमियाँ ही बहुत सी चीजें दिल में घर बनाती हुयी। ठेठ का कलकत्ता और वहाँ सस्ता जीवन।हुगली के किनारे की बोटिंग और आम आदमी का जीवन।गज़ब।शहर के सारे नाले, नदी में गिरते हुए।नहाने के हित हुगली में घाट पर साफ़ पानी ढूँढने की बेवकूफी का बाद में आभास।लोग बड़े भले।एक भी भिखारी नहीं।चोर-लुटेरे तो दिखे तक नहीं। आँखों के सामने आते सस्ते आम और गलियों में बिना टोंटियों के खुले नल। सबकुछ ट्राम,लोकल ट्रेन,रिक्शा,टेक्सी,कार जो जी चाहे।शान्ति निकेतन नहीं जा पाने का दुःख।वेल्लूर मठ और दक्खिनेश्वर जा पाने का सुख।
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