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31 मई, 2013

31-05-2013

छ; अलग अलग आदतों के आदमी एक साथ एक ही तरफ जाती ट्रेन में।दो दिन की यात्रा फिर सात दिन का एक ही तम्बू में ठहराव।फिर एक दो दिन की फकीरी।अंत में जाते जाते घर तक की वापसी में और दो दिन की संगत।इतने दिन काफी हैं किसी खुस्सट को जानने के लिए।पर्याप्त दिन हैं ये एक दोस्त बनाने के लिए।लगभग ठीक अवधि है ये एक कॉलेज प्राध्यापक की गप्पबाजी सुनने के लिए।दो बूढों के बीच दो जवान चेहरों की संगत  भी सेट ही हो ही जाती है इतने दिनों में।कौन कब उठता है ?, कब सोता है?, कौन कितने बजे मंजन करता है।रोज़ नहाने में रूचि है कि नहीं?, कौन किस हद तक गिर सकता है?,कौन किस हद तक केअर करता है? सब दूध का दूध पानी का पानी। पंद्रह दिन काफी है।

साथियों में शामिल चेहरों की सोचने बैठो तो लगता है कितने समुच्चय बन पड़े हैं।दो सीनियर सिटिजन हैं।दो के दांत नकली हैं।दो आरक्षण वाले कोटे से हैं।दो का आधा टिकट ही लगता है। और भी गोया दो मोदी के फेन हैं।दो सेवानिवृत हैं।दो मौनधारी हैं तो दो बड़बोले।दो अध्यापक हैं।दो मीडिया से ताल्लुक रखने वाले।दो आकाशवाणी के उदघोषक ठहरे।दोआकाशवाणी के वार्ताकार।दो एक ही मकान में रहते हैं।दो एक ही कॉलोनी के वाशिंदे हैं।दो की सीट पासपास है।दो शिक्षाविद हैं।और दो गप्पबाज।दो आस्तिक और दो नास्तिक।लगभग सारे ब्रोड दिमाग के।इन्हीं के बीच ठूसे हुए की तरह एकाध आदमी संकड़ी सोच का भी।दो ठेठ गाँवड़ेल।खैर सभी जने मिलाकर छ: ही हैं। 

सभी की अपनी अपनी खासियते भी होती है जो किसी से मेल नहीं खाती।जैसे एक लड़की है।एक कॉलेज में हिन्दी पढाता है।एक हिन्दी पढ़ रहा है।एक तिहत्तर पार गठिया रोग से पीड़ित हैं।एक के सामने वाले दांत नकली हैं।एक बातों को इतना आहिस्ते करता और सरकाता है कि दूसरा स्टेशन आ पड़े और चाय तक ठंडी हो जाए।एक सभी के हिसाब-किताब बिठाता संयोजकछाप आदमी है।ऐसे जमावड़े का अपना आनंद है।मजमे में जो गायब हो उसी की निंदा शुरू।खींचातानी बेहिसाब।हंसी-ठठ्ठे के बीच कुछ काम की बातें भी जो उन्हें सभ्य  घोषित कर सके।अरे हाँ एक को इमरती पसंद है एक को जलजीरा।एक को चिप्स।एक को भूंगड़े।एक कॉल ड्रिंक के सिवाय बात ही नहीं करता।एक चाय का पक्का दास।गज़ब का संयोजन है।एक प्याज और अचार के बगैर रोटी के हाथ तक नहीं लगता तो दूजा कटलेट और बिरयानी खाता है।एक  को अपर सीट बैठती है तो दूजा  विंडो सीट के बगैर हिले तक नहीं।
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बनारस में गंगा तीरे।मेरे लिए बाबा विश्वनाथ से ज्यादा जानेमाने लेखक काशीनाथ सिंह और नामवर सिंह की नगरी है, मृत्यु का आभास देते हरिश्चन्द्र घाट वाला  शहर काशी। ठगने की जुगाड़ में बैठे टेम्पो वालों का और गलियों में अचानक मिलने वाले सांडों का शहर है बनारस।सारनाथ से ग्यारह किलो मीटर दूर बनारस जहां खाना बहुत सस्ता और चौपाटी पर एक मस्ती बसती है। शाम की गंगा आरती में आस्था के बजाय उमड़े हुजूम में शामिल चेहरे देखने का ख़ास अवसर देने वाला शहर है बनारस।गर्म दिन और ठंडी शामें परोसता बनारस रास आया।
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कोलकाता में पांच दिन तक बाउल संगीत सीखा। एक अद्भुत साध्वी गुरु पार्वती जी बाउल से दो बंगाली गीत सीखे। गायन की इस परम्परा में इसका अपना पूरा विज्ञान है।नियम है क़ानून है।इसमें सूफी अंदाज है।एक योग है।इसे नृत्य या प्रोग्राम की विषय वस्तु समझना नितांत बेवकूफी होगी।इसे लोक गायकी समझना तो और भी बड़ी भूल होगी।गुरूजी से लम्बी चर्चाएँ हुयी।उन्होंने बड़े सहज ढ़ंग से चीज़ें हमारे गले उतारी।इस दुनियादारी में जहां हमारे आसपास प्रेरित करने वाले लोग बहुत कम होते जा रहे हैं ऐसे में पार्वती जी का काम बड़ा काम है।मुझे उनकी संगत में रहकर ज्ञान के साथ प्रेरणा भी मिली।वे गज़ब की गायिका है।चिन्तक है।उनकी अपनी साधना है।वे मेरे जीवन में एक प्रेरणा की तरह हमेशा याद रहेगी।उन्हें एक बार फिर सलाम।

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