चौदह सितम्बर का दिन जीवन में हमेशा हिन्दी दिवस के नाम से ही पहचाना गया है.इस साल इसके कुछ नए मायने भी उभरे।एक तो केक काट कर बर्थ डे नहीं मनाने में विश्वास रेणु दीदी का जन्मदिन इसी दिन पड़ता है.दूसरी बात इस बार इस दिन बाबा रामदेव आयर तेजा दशमी का राजकीय अवकाश था.मौक़ा पाकर पहले से तय उदयपुर यात्रा में पांच-छ: चाँद (चार चाँद तो सभी के लगते हैं )और लग गए. पत्नी नंदिनी,बेटी अनुष्का और फ़िल्मों के जानकार हमारे आकाशवाणी के एकदम सादे अधिकारी लक्ष्मण व्यास (नाम के साथ 'जी' लगाए बगैर भी आदर व्यक्त किया जा सकता है ) के साथ की उदयपुर यात्रा।
'प्रतिरोध का सिनेमा' के उदयपुर संस्करण' से मेरा परिचय बड़ा यथार्थपरक रहा,सलीकेदार प्रदर्शनी के साथ ही पंजीकरण टेबल पर प्रज्ञा भाभी का मुस्कराता चेहरा।जाते ही दुआ-सलाम की देर थी कि 'प्रेस विज्ञप्ति' जारी करने का काम पकड़ा दिया।(इसी काम के हित हम चित्तौड़ के आयोजन में पंहुना वाले प्रवीण जोशी को पेन-डायरी थमाने के चक्कर में रहते हैं )सबसे ज्यादा माथापच्ची का काम है प्रेस के लिए मेटर हेतु नोट्स लेना।खैर।
इस बारी लगा मैं उदयपुर नहीं अपने दूसरे घर गया हूँ.हमविचार मित्रों से मिलने का आनंद ठीक से अनुभव कर पाया। कम पहचान के बावजूद शैलेन्द्र, संगम, मिहिर, सुधीन्द्र सहित पंखुड़ी के साथ अपनापन महसूसा।पहले से तय मुआमले के अनुसार इस नए ढंग के सिनेमा अभियान के संयोजक भाई संजय जोशी से चाय के चटकारे और सिगरेट से निपजे धुएँ के छल्लों के बीच उदयपुर कोर्ट चौराहे पर बातचीत याद रहेगी।एकदम काली मूंछों के ठीक नीचे से मुस्कराते होंठ के चेहरे वाले हिमांशु पंड्या (उनकी प्रतिबद्धता के कारण इस नाम के आगे 'श्री' और पीछे 'जी' लगा हुआ माना जाए.) के ज़ज्बे और वातावरण निर्माण के कायदे को सलाम है.यहाँ सार्वजनिक करने में मुझे कोइ गुरेज नहीं कि हिमांशु भाई के संचालन का मैं मुरीद हूँ.कल भी बिना कहे मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा।खैर आयोजन के ब्रोशर से लेकर चार्ट,स्मारिका तक सभी में एक अनौपचारिक रवैया साँस लेता दिख रहा था.लगे हाथ वहीं लगी बुक स्टाल से कुछ खरीदी भी की गोया 'समकालीन जनमत','कवि' पत्रिका के साथ 'कमला बाई' और 'जया भीम कामरेड' की सीडी।
दिनभर की यात्रा में कइयों के साथ बार-बार चाय पी कर यादों के मैदान में उदयपुर कोर्ट चौराहे को अमर कर दिया।उदघाटन में दस्तावेजी फ़िल्मकार बेला नेगी सहित हिन्दी आलोचक नवल किशोर जी को सुना।एक ओरेटर जो अन्दर तक छाप छोड़ गया वो था ओडिशा का फ़िल्मकार-कम-एक्टिविस्ट सूर्य शंकर दाश.क्या गज़ब तथ्यों के साथ भाषा का समन्वय। विचारों से लबरेज एक प्रतिबद्ध युवा फबती हुयी दाढ़ी के साथ मेरे जेहन में बैठ गया.एक ही अफसोस कि समारोह के अगले दिन मेरी हाजरी उदयपुर में नहीं रही वरना दाश की बनाए सात-आठ फ़िल्मों का वो पैंतालिस मिनट का गुच्छा भी देख आता.दाश का सुनना अपने आप को बहुत दूर रखकर अपने देश की हकीक़त से वाकिफ होना है.दिल में आँखों देखे हालात के प्रत्यूत्तर में एक ख़ास गुस्सा है जिसे फ़िल्मों में दर्शाने का ज़रूरी माद्दा भी दाश के दिमाग में है.'प्रतिरोध के सिनेमा' की एक संगत ने मेरी बरसों से झाले सनी कुटिया की झाड-पौंछ कर दी.
जारी ……………
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