(नमस्ते। शिक्षा विभाग राजस्थान सरकार की पत्रिका 'शिविरा' के शिक्षक दिवस विशेषांक सितम्बर 2020 में पृष्ठ 61 पर पुस्तकालय संस्कृति को केंद्र में रखकर लिखा गया मेरा आलेख प्रकाशित हुआ है। 'संडे लाइब्रेरी इन बसेड़ा' के कॉन्सेप्ट नोट की तरह लिखे इस आलेख में आत्मकथांश जैसी अनुभूति होगी। रुचि और समय हो तो पढ़िएगा। सादर माणिक,व्याख्याता(हिंदी साहित्य) उर्फ़ बसेड़ा वाले हिंदी के माड़साब। )
बचपन से ही सिलेबस की किताबें उतना आकर्षित नहीं करती थी जितनी इतर किस्म की। हालाँकि बहुत बाद में जाना कि यह ‘इतर’ ही जीवन में बदलाव लाता है। कुछ बड़े हुए तो स्कूल का पुस्तकालय ताले में बंद देखा। किताबें झाँकती थी मगर अलमारियों के शीशे वाले दरवाज़ों के पीछे से। पुस्तकालय अध्यक्ष किस चिड़िया का नाम है?, नहीं जानते थे। एक सरकारी कारिन्दा किताबें पढ़वाने और वितरित करने के लिए नियुक्त था, मगर चिंताजनक तथ्य यह रहा कि उसका किताबों की संस्कृति से दूर-दूर तक कोई लेन-देन नहीं था। कई बार सरकारी सिस्टम में लगे होने की बेरुची के कारण काम संभव कहाँ हो पाते हैं? असल खामियाज़ा हमें ही भुगतना रहा। उस ज़माने से लेकर आज तक स्कूल के टाइम टेबल में लाइब्रेरी और खेल सहित कला शिक्षा और कार्यानुभव टाइप विषय के कालांश बच्चों की ज़ुबान में ‘खाली पीरियड’ कहलाते हैं। ऐसा क्यों और कैसे हुआ?, यह शोध का विषय नहीं है। सभी इस बात की असलियत जानते हैं। आलसी और निष्क्रिय अध्यापकों की एक बड़ी ज़मात है, जिसने यह फिनोमिना गढ़ने में महती भूमिका निभाई है। गाँव से पास के कस्बे निम्बाहेड़ा में एक सरकारी सीनियर सेकंडरी स्कूल में पढ़ने गया तो वहाँ यह प्यास कुछ बुझी। एक ठीकठाक लाइब्रेरी थी और ढंग का वाचनालय भी। इन सभी सुविधाओं के बावजूद अंकों की दुनिया से हम भी अछूते कैसे रहते, तो सिलेबस की रंगहीन किताबों को पढ़ने में ही वक़्त का बड़ा हिस्सा ज़ाया हुआ। अध्यापक बनने की जुस्तजू में हम चित्तौड़ आ गए और एस.टी.सी. डिप्लोमा में डाइट के पुस्तकालय में आवाज़ाही शुरू हुई। वहाँ सीता मैडम हुआ करती थी। लिखने-पढ़ने की कुछ रूचि जगी और यहीं से जड़ें निकलना आरम्भ हुई। हालाँकि लम्बे समय तक सीता मैडम ने लाइब्रेरी को सेट करने में हमसे भरपूर काम लिया जो कि असल में बहुत बोरिंग था। मगर हम किताबों के लेबल चिपकाने, नंबर डालने, विषयवार जमाकर रखने और अलमारियों में करीने से लगाने की प्रक्रिया में पुस्तकों की संगत को बहुत गहरे से अनुभव कर रहे थे।
बाद के सालों में चित्तौड़ में ही ‘पाठक
मंच’, ‘संभावना संस्था’, ‘प्रयास संस्था’, ‘जिला
पब्लिक लाइब्रेरी’ जैसे संस्थागत ठिकानों ने मुझे साहित्य और
साहित्येत्तर पुस्तकों से जुड़ने में बड़ी मदद की। हाँ, एक बीता हुआ सच
यह भी था कि अपने ननिहाल हमीरगढ़ में गर्मियों की छुट्टियों में किराए पर लाकर पढ़ी
गयी कॉमिक्स के चाचा चौधरी, साबू, नागराज, बबलू,
बांकेलाल
जैसे लोकप्रिय पात्र मेरे ज़ेहन में लगातार बने रहे। दिलोदिमाग में यह स्थापित हो
गया था कि दुनिया को देखने समझने का एक दूजा तरीका यही है कि हम विविध किस्म की
किताबों से होकर गुज़रें। गप-गोष्ठियों में हिस्सेदारी करें। चाय की थड़ियों पर हाल
की पढ़ी पुस्तकों पर संवाद करें। उम्र के बहुत बड़े हिस्से के गुज़र जाने के बाद भी
मैं बहुत कुछ सार्थक और ज़रूरी साहित्य नहीं पढ़ पाया था, इस बात का एहसास
मुझे था और टीस भी। बस यही सोचकर अपने अध्यापन के दौरान विद्यालय की मौजूदा
व्यवस्था में रहते हुए क्या कुछ नया करने की गुंजाइश है?, इस पर मेरा फोकस
रहा। अभी हाल के सालों में विश्व पुस्तक मेले सहित आसपास की दोस्तियों ने कई ऐसे
गंभीर रचनाकार, विचारवान और जानकार साथी दिए, जिनकी
संगत में लगा कि किताबों से मित्रता जीवन को बेहतर और संवेनदशील बनाने के लिए एकदम
आवश्यक है और इसमें कोई दो राय नहीं है।
दो हज़ार सत्रह की गर्मियों की बात है,
मैं
हिंदी लेक्चरर के तौर पर प्रतापगढ़ जैसे आदिवासी बहुल ज़िले की छोटी सादड़ी तहसील के
बसेड़ा गाँव में नियुक्त हुआ। शुरुआती तीनेक महीने के बाद ही कई नए प्रयोग स्कूल
में आरम्भ किए, उन्हीं प्रयोगों में से एक था ‘संडे
लाइब्रेरी’। पहले से मौज़ूद स्कूल की ‘पुस्तकालय-अध्यक्ष विहीन लाइब्रेरी’
को
छेड़े बग़ैर हिंदी साहित्य के मेरे विद्यार्थियों के सहयोग के बूते यह नया आइडिया
रोपा। स्कूल में अवकाश के दिन ग्यारहवीं जैसी नॉन बोर्ड क्लास के कमरे में ही
लाइब्रेरी संचालित करना तय हुआ। बच्चे भी ग्यारहवीं के ही थे जिन्होंने इसे चलाने
का जिम्मा लिया और एक साल तक चलाया भी। गौरतलब यह है कि अवकाश के दिन लाइब्रेरी
सुबह नौ से दोपहर बारह बजे तक चलती। विद्यार्थी ही पत्र-पत्रिकाएँ
पढ़ते-बाँटते-सहेजते और व्यवस्थित करते और उपस्थिति रजिस्टर संधारित करते। फोटो
रिपोर्ट भेजते जिसे मैं न्यू मीडिया की ज़ुबान में ‘वायरल’ करता
था। गाँव के दानदाताओं ने मासिक रूप दो हज़ार का चन्दा देने की हामी भर ली थी। फिर
क्या था, हमारी उड़ान आसमान छूने लगी। गोपाल जी आंजना और भूपेन्द्र उर्फ़ बबलू
भैया का शुक्रिया जिन्होंने कभी भी पैसों की कमी नहीं आने दी। देशभर की नामी
पत्रिकाएँ आने लगी। मैं चित्तौड़ रेलवे स्टेशन पर अग्रवाल जी की बुक स्टॉल से
शुक्रवार की शाम अपनी साप्ताहिक खरीद करता और शनिवार को स्कूल में नयी खेप पहुंचा
देता। सन्डे को नयी पत्र-पत्रिकाओं से मिलने को बच्चे आतुर रहते। खरीद का
हिसाब-किताब और आए हुए दान का लेखा बच्चे ही रखा करते। शुरुआती दिक्कतें मुझे तोड़
नहीं सकीं। प्रधानाचार्य महेंद्र प्रताप गर्ग मेरे साथ थे। दर्जनभर साथी कार्मिकों
में बहुत से मेरे साथ नहीं थे मगर मैं बेपरवाह था। हालाँकि कई मेरे काम से अभिभूत
भी थे, यही मेरी तसल्ली का सबब था। असल बात यह थी कि मैं हमेशा
विद्यार्थियों के प्रति जवाबदेह रहा तो मेरे काम और विचार के केंद्र में
विद्यार्थी ही रहे। बच्चों की प्रसन्नता में ही मेरी प्रसन्नता। नया अनुभव था,
तो
मैं भी सीख रहा था। गलतियाँ होना स्वाभाविक ही था। गलतियों के डर से कुछ किया ही न
जाए, इस तरह के कुतर्कों का मेरे शब्दकोश में कोई स्थान नहीं रहा।
संडे लाइब्रेरी के इस कोंसेप्ट पर
फेसबुक-वाट्स एप छाप ‘न्यू मीडिया’ के सहारे खूब
प्रचार संभव हो सका और चारों तरफ से आने वाली सहरानाओं से मन अभिभूत रहा। एकदम
देहाती इलाके में संचालित हमारी लाइब्रेरी में साहित्यिक पत्रिकाओं में हंस,
नया
ज्ञानोदय, समयांतर जैसी गुणवत्ता से भरी पत्रिकाएँ पढ़ी जाने लगी। आलोचना,
पहल
और मधुमती के पुराने अंक मित्रों ने भेंट किए हुए थे। शुरू-शुरू में कुछ गरिष्ठ
लगा होगा मगर बाद के महीनों में स्वाद आने लगा। राजनीतिक पत्रिकाओं में इंडिया
टुडे और आउटलुक मंगाते रहे। कभी-कभी वार्षिकांक भी आ जाते तो महीनों उनका स्वाद
बना रहता। बाल साहित्य के नाम पर बालहंस, बाल भास्कर सहित नंदन, विज्ञान
भारती, चम्पक लाते रहे। बुक स्टॉल वाले अग्रवाल जी मेरा इंतज़ार करने लगे और
पत्रिकाओं की एक-एक प्रति याद रखकर बचाकर रखने लगे। दो से तीन तरह के समाचार पत्र
स्कूल में आते ही थे। राजकमल और एनबीटी से कुछ किताबें मंगवानी आरम्भ की थी मगर तब
हमारा फोकस केवल पत्र-पत्रिकाओं पर ही था। अन्य पाठकों की रुचियों और डिमांड को देखते
हुए अहा ज़िंदगी, क्रिकेट सम्राट, कादम्बिनी,
सहेली
सहित योजना और कुरुक्षेत्र भी लाइब्रेरी का हिस्सा बनीं। हाँ याद आया हमने लम्बे
समय तक प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिहाज़ से प्रतियोगिता दर्पण और क्रोनोलोजी जैसी
पत्रिकाएँ भी मंगवाई। इसी दौरान अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन चित्तौड़गढ़ इकाई में मेरा
आना-जाना शुरू हुआ और कुछ मजबूत सबंध बने, जहाँ ‘डिस्ट्रिक्ट
लर्निंग रिसोर्स सेंटर’ पर ही एक पब्लिक लाइब्रेरी लगती थी। हम मित्र
लोग अक्सर उनके बुलावे पर वहाँ जाते और चाय पर देर तक चर्चाएँ करते। बाद में बिन
बुलाए स्वप्रेरणा से भी जाने लगे। ज़्यादातर अध्यापक किस्म के साथी थे। इसी संस्था
के सहयोग से ‘संडे लाइब्रेरी’ को बड़ा हौसला
मिला। यहाँ से बाल मनोविज्ञान पर केन्द्रित दो महत्त्वपूर्ण पत्रिकाएँ हर माह मिल
जाती थीं, एक चकमक दूजी प्लूटो । दोनों मुश्किल से सुलभ थीं, तो
हमारे लिए बड़ा उपहार थीं। भोपाल के सुशील शुक्ल जी का आभार कि बच्चों के लिए इतनी
गंभीर और शानदार पत्रिकाएँ निकालते रहे हैं।
यहाँ एक और गौरतलब जानकारी यह दूँ कि
अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन चित्तौड़गढ़ में एक सक्रीय साथी मिले। नाम रमेश शर्मा।
बालगीतों और बाल कहानियों पर उनका गज़ब का काम है। वे एक से अधिक बार बसेड़ा आए भी। ‘जोला
पुस्तकालय’ के नाम से उनकी संस्था का एक प्रोजेक्ट चलता
था। जिसमें वे एक माह के लिए अपनी मदर लाइब्रेरी से पचास किताबों का एक बक्सा देते
और महीनेभर बाद उसी बक्से में दूजी पचास किताबें बदलकर दे देते। इस बीच हमारी ‘संडे
लाइब्रेरी’ नए पचास टाइटल से समृद्ध हो जाती और बच्चों के
चेहरे खिल जाते। बच्चे लगातार बदल रहे थे यही एक सुकून की ख़बर थी। मेरी पुस्तक
संस्कृति के प्रति आस्था बनी रही तो इसमें रमेश जी जैसों का बड़ा हाथ है। इसी के
तहत हमने एक बार विश्व पुस्तक मेला दिल्ली तो रमेश जी के साथ ही घूमा। फेसबुकी
प्रचार से देश के अलग-अलग हिस्सों से भी किताबें उपहार में मिलने लगी। माहौल बनने
लगा। ग्रामीण भारत में इस तरह की अनूठी शुरुआत से कई अन्य मित्र भी प्रेरित होकर
वैकल्पिक पुस्तकालय के कोंसेप्ट पर काम करने लगे। पीपलखूंट के कचोटिया में अभिनव
सरोवा, राशमी में मुकेश स्वर्णकार, डगला का खेड़ा में इरफ़ान भाई इनमें से
कुछ नाम है। मुझे भी सतत प्रेरणा मिलती रही। बिना प्रेरणा के नवाचार दम तोड़ जाते
हैं। आप तो जानते ही हैं कि व्यवस्थाएँ तो कभी आपको जीने देती नहीं, व्यवस्था
की अपनी मजबूरियाँ होती हैं। हम रूटीन से अलग इस तरह के काम करके ही अपने हिस्से
की ऑक्सीजन का इंतज़ाम करते रहे हैं। अजमेर की ‘गांधी पब्लिक
लाइब्रेरी’ के जीर्णोद्धार का काम चल रहा था और उसमें
तल्लीन हमारी मित्र ज्योति ककवानी से लगातार संवाद सहित उत्तराखंड के महेश पुनेठा
का ‘जनता पुस्तकालय’ का अभियाननुमा काम सदैव प्रेरित करता
रहा।
‘संडे लाइब्रेरी’ में बच्चे पढ़ते
हुए कुछ-कुछ बदलने लगे थे और इसका असर विद्यालय की प्रार्थना सभा में दिखने लगा
था। बच्चे गीत-कविता आदि सहित विभिन्न विषयों पर दो-दो मिनट के भाषण देने में खुद
को अब सहज अनुभव करने लगे। अख़बार आदि के सम्पर्क में आने से देश-दुनिया की ख़बरों
से एकमेक होने लगे। एकाध बार ‘संडे लाइब्रेरी’ में चूँकि
अध्यापक का कोई नियंत्रण नहीं रहा तो कुछ बच्चे एकाध बार बीड़ी-माचिस सहित पाए गए।
यह सच है कि बाद में कुछ कहना-सुनना भी पड़ा। खैर... ज़िंदगी में असल में रास्ते कभी
भी बहुत सपाट और सहज हो नहीं सकते। नवाचार की राह डगमगाई भी मगर हौसला पस्त नहीं
होने दिया। वक़्त के साथ जानकार मित्रों की विशेष वार्ताएँ भी आयोजित करवाई।
स्टोरी-टेलर महेंद्र नंदकिशोर, प्रशासनिक अधिकारी ज्योति ककवानी,
हिंदी
के प्रोफेसर डॉ. राजेश चौधरी, नवाचारी अध्यापक अभिनव सरोवा, कॉलेज
शिक्षा में सहायक आचार्य प्रवीण कुमार जोशी, चित्रकार मुकेश
शर्मा, रेडियो ब्रॉडकास्टर शरद त्रिपाठी सहित कई जानकार मित्र ‘संडे
लाइब्रेरी’ आए। बच्चों के लिए यह सबकुछ नया और दुनिया को
देखने के लिए एक नज़रिया विकसित कर रहा था। अख़बार आदि में कुछ ख़बरें छपने से ज़िले
में यह नवाचार चर्चा का विषय बना। हालाँकि यह एक बहुत छोटा काम था और बहुत आगे
जाना है यह मालूम था ही। इस तरह की पब्लिक लाइब्रेरी के अभियान किसी भी कीमत पर दम
नहीं तोड़े, यही हमारा मकसद हो तो कितना अच्छा हो। अब बच्चे
धीरे-धीरे पत्र-पत्रिकाओं के बाद किताबों की तरफ झुकने लगे थे। कुछ चयनित
आत्मकथाओं सहित प्रतिनिधि कहानियाँ और प्रतिनिधि कविता संग्रहों की संगत करने लगे।
यही हमारी जीत थी।
बसेड़ा की ‘संडे लाइब्रेरी’
को
तब एक बार फिर ऊर्जा मिली जब भीलवाड़ा के सांगानेर कस्बे की हमारी मित्र मण्डली ने
वहाँ एक पब्लिक लाइब्रेरी का अभियान चलाया। हमने आर्थिक सहयोग सहित किताबें भेंट
भी की। उद्घाटन उत्सवपूर्ण रहा और बाद के संडे जैसे अवकाशों में भी में हम वहाँ गए
और मित्रों की हौसला अफजाई की। नाम है ‘सांगानेर स्टडी सर्कल’।
शुरुआत कोठारी नदी की सफाई से हुई और फिर पौधारोपण से गुज़रते हुए गाँव के सरकारी
स्कूल के एक अनुपयोगी भवन में लाइब्रेरी के संचालन तक की कहानी अद्भुत और प्रेरक
थी। मैं जब भी निराश होता हूँ उनके जज़्बे को याद कर फिर से जुट जाता हूँ। गाँव में
मौजूद सम्प्रदायिकता से सराबोर माहौल को धीरे-धीरे नयी दिशा में मोड़ने के उस
पुस्तक-संस्कृति प्रधान नवाचार को सलाम करता हूँ। वह यात्रा अनवरत है। सांगानेर के
आदित्य देव वैष्णव, अनिरुद्ध और सूरज पारीक की टीम को सलाम है। हाँ
तो यह सच भी है कि हम अपने आसपास के करीबी मित्रों से लगातार होने वाले संवाद से
ही ऊर्जा प्राप्त करते हैं। अपने काम को साझा करते हैं और फीडबैक प्राप्त करते
हैं। इस मायने में मेरे साथियों का आभारी हूँ। हाँ तो बसेड़ा की इस ‘संडे
लाइब्रेरी’ का पहला दिखता हुआ हासिल यह मिला कि यहाँ साल
दो हज़ार अठारह में बारहवीं पास करके दो विद्यार्थी वर्धा (महाराष्ट्र) स्थित
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी आनर्स में दाखिला लेते हैं।
नाम अर्जुन कुमार मेघवाल और गुणवंत कुमार मेघवाल। उनके मानस में पुस्तक-प्रेम का
रोपा हुआ बीज अब कोंपल के रूप में फूट रहा है। वे अपनी फुर्सत का पहला हिस्सा
यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में खर्च करते हैं न कि वर्धा के टॉकीज में।
अनुभव लिख रहा हूँ कि इस नवाचार की
आदत ने मुझे जीवन में सार्थकता दी है। जिस कमी की वजह से मेरा बचपन कोरा रहा वह कम
से कम बसेड़ा के बच्चों के दौर में न हो। पुस्तकों के चयन, खरीद और भेंट की
पुस्तकों की भी अपनी संस्कृति है और गाँव वालों द्वारा विश्वास के साथ
विद्यार्थियों के हित में पुस्तक मेले से किताबें खरीदने की जिम्मेदारी भी एक भाव
है। सालभर में आयोजित ‘उदयपुर फ़िल्म फेस्टिवल’ में आए ‘घुमंतू
पुस्तक मेले’ के साथ की अनुभूतियाँ भी मेरे ज़ेहन पर अनूठी
छाप छोड़ती रही। असल में प्रतिबद्ध लोगों की संगत आपको और ज़्यादा प्रतिबद्ध बनाने
के साथ आपके भीतर गंभीरता विकसित करती है। किताबों के चयन की जब भी बात चलती है तो
मुझे डॉ. राजेश चौधरी की गंभीरता भरी सलाहें याद आती हैं। बहुत बाद में लगा कि अब
बसेड़ा के बच्चे जनगीत गाने लगे हैं, नुक्कड़ नाटक सरीखा कुछ करने लगे हैं।
क्रान्ति केन्द्रित भाव वाले नारे लगाने लगे हैं। पाश, आदम गोंडवी,
गोरख
पाण्डेय, दिनकर और निराला वाले हिंदी साहित्य से लबरेज़ गंभीर कविताओं के पाठ
में रूचि लेने लगे हैं। पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी केन्द्रित झंडापरक आयोजनों
में सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के विषयों में भी पुस्तकों के साथ की संगत का असर
दिखने लगा। आपको आश्चर्य होगा कि लाइब्रेरी के वोलंटियर विद्यार्थियों ने इसी
लाइब्रेरी को दीपावली, शीतकालीन अवकाश सहित गर्मियों के दे-लम्बे
अवकाश में भी खोलने की हिम्मत जुटाई और कमोबेश पुस्तकालय चलाया भी। अगर पीछे मुड़कर
देखूँ तो कहना चाहता हूँ कि बबली धोबी, दीपक ढोली, कारू लाल आंजना
इस नवाचार के आधार स्तम्भ रहे हैं।
नालंदा को जलाने से लेकर जामिया
मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी में हमले तक की यात्रा में पुस्तक
विरोधी लोगों की ताकतें और उनकी कुटनीतिक चालें समझनी होंगी। संवेदनशील और जागरूक
नागरिक तैयार करने की जिम्मेदारी निभाते हुए अध्यापकों को समझना होगा कि
पुस्तकालयों का बड़ा रोल है। आज जब शिक्षा हमें कुतर्की भीड़ में ही तब्दील करने में
संलग्न है तो ऐसे में सिलेबस से इतर किताबों का चयन भी बहुत मायने रखता है। शिष्य
अपने माड़साब की नक़ल करना चाहें तो देश का बेड़ा गर्क हो जाएगा। यहाँ अध्यापक खुद
अख़बार से अधिक कुछ न पढ़ रहे हैं, न ही नयी पुस्तकें खरीद रहे हैं। भयावह
अन्धेरा है भाई। स्कूल में नवाचार करने वालों को अलग-थलग डाल दिया जाता है। शिक्षा
जगत में बड़ी जमात अपना ईमान भूल चुकी है। तनख्वाह केन्द्रित जीवन रह गया है बस।
गुरु और शिष्य के बीच के रिश्तों की ऊष्मा एकदम उड़ गई है। ऐसे में कविता ‘किताबें
करती हैं बातें’ या ‘किताबें कुछ कहना चाहती हैं, आपके
पास रहना चाहती हैं’ जैसी रचनाएँ हमें जीवन को एक सार्थक दिशा में
मोड़ने का मकसद देती हैं। आज भी दावे से कह सकता हूँ कि जिस रात लिखित शब्द यानी
कोई आलेख या साहित्यिक रचना पढ़कर सोता हूँ, अगले दिन की
सुबह कुछ जुदा होती है। विद्यार्थियों या मित्रों से बात करते वक़्त ऊर्जा से भरा
हुआ अनुभव करता हूँ। हमारे गुरूजी सत्यनारायण जी व्यास बड़ी खुबसूरत बात कहते हैं
कि जब तक इंसान हैं साहित्य, संगीत और कलाओं की ज़रूरत रहेंगी,
पशुओं
की इनकी ज़रूरत नहीं होती। घर में मौज़ूद किताबों के टाइटल के आधार पर ही पाठकों को
अर्बन नक्सल करार दिए जाने के दौर में ऐसी गलीज मानसिकता पर दया आती है तो दूसरी
तरफ सोशल मीडिया में कहीं पब्लिक लाइब्रेरी कल्चर को मजबूत होते देखता हूँ या किसी
कॉलेज-यूनिवर्सिटी में लाइब्रेरी परम्परा को समृद्ध होते अनुभव करता हूँ तो दिल
तसल्ली से भर जाता है कि हम ठीक रास्ते पर ही हैं। इस आलेख को पढ़ने वालों से यही
अपील है कि बहुत काम करना है, आप जहाँ भी हैं वहीं अपने आसपास से काम
शुरू करिएगा। हम एक दिन कामयाब ज़रूर होंगे।
कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोधरत।
प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com
*जिंदगी में असल रास्ते कभी भी सरल और सपाट नही होते है* बड़ी सार्थक और गंभीर बात कही है मानिक सर ने।
जवाब देंहटाएंपुस्तकालय को लेकर आपने जो किया और महसूस किया वह हमारे लिए प्रेरणा स्त्रोत है।
संडे लाइब्रेरी का नवाचारी प्रयास आपकी हिम्मत और शिक्षकत्व का अनुकरणीय उदाहरण है। पुस्तकालय के संदर्भ में इस तरह के प्रयास बहुत ही कम देखने व सुनने को मिलते हैं।
आपके इस प्रयासों से बच्चों के मन में आप अमिट हुए हैं। क्यो कि मुझे भी मेरे पुस्तकालय वाले सर हमेशा याद रहते हैं उनकी पुस्तकालय गतिविधियों के कारण।
आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं सर🙏