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24 फ़रवरी, 2010

कविता-आदमीज़ात

आदमीज़ात
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जीत जाता है हरदम वो ही,
अबला हारी,हारी है,
देख आईना ताज़ा ताज़ा,
लिख रहा हूं सच्चा मुच्चा,
फ़िर से अनुभव भारी है,
बेईमानी उसकी सब जानते हैं,
नकाब लगा के कई सारे,
वो घूमता है आस-पास ही,
बातें करता बडी बडी,
मेज़ की बातें अखबार में छप जाय,
गोष्ठिया नारीवाद लेख तक सिमटे,
यही ईष्ट है और बनी चाह ये,
कंगूरे की ईच्छा वाला,
कितना विलग है ये आदमी,
पडौस में अबला पीटी जाती,
तब लेखक चुप रहते हैं,
उसका आदर,चिंतन उसका,
गायब गायब लगते हैं,
हैरान करती है ये अदाकारी,
आदमीजात के आदमी की,
चिल्लाकर लोग लिखते हैं बस,
कोई छपने को,कोई बिकने को,
सम्मेलन के मण्डप नीचे,
गूढ भाव से नारी चिन्तन,
लेख,किताबें और पत्रिकाएं,
भरी पडी है,उफ़न रही है
सबला-सबला कागज़ रंगे,
पर समाज़ में,
अबला,अबला है,
उपर से फ़िर,
जोर लगाकर लिखता,
आदमीजात का आदमी,
बरसों की मेहनत देखू यूं,
मोटे आखर में साफ़ लिखी है,
किस्मत उसकी कुछ ऐसी ही
चोका-चूल्हा,और मज़ुरी,
खेती-किसानी की हिस्सेदार सी,
लगती है उसे वो कभी कभी,
बिना सींघ की गाय सी
कम ईच्छाओं वाली,
सादी ईंसान,
बीच के रास्ते वाले घरों में,
प्यार की अदाकारी तक उसकी,
नसीब नही घर को,
जी भरकर मान लिया है उसने,
भोली,अनजान और सरल उसको,
बे-पहचान के रिश्तों में उलझा,
 आदमी बन गया है अभिनेता सा,
बच्चे खुद के बाट जोहते,
बडे बुज़ुर्ग से औजल हैं वो,
रंग बदलेगा आदमीजात का कभी,
सपना टुटा गया सा लगता है,
मशगुल बना फ़िर,
गप्पेबाज़ी में रोज़मर्रा की तरह,
उठने लगे कि नया दोस्त  बैठा,
लो चाय पर चाय,
यानि फ़िर चलेंगे,
नारीवादी विमर्श के झू्ठे दौर.........झूठे तर्क..........
 
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