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05 सितंबर, 2010

कविता-''सड़क''

कविता सड़क
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लक्की मेले के रेले
या चाय पकौड़ी के थैले
समाया है सबकुछ यहाँ
बड़े घरों की गाड़ियां
कुछ झुरमुट कुछ झाड़ियाँ
चलती-बढ़ती देखी रोज़
झोले-झंडे लिए जातरू
पगडंडी  पर चलते हैं
भोंकते चढ़ते छाती पर
हांगते हैं कुछ कुत्ते यहीं
जबरन रोकते हैं गाड़ियाँ बेवजह
कुछ लोग खाते कमाते घर के
राजमार्ग है ,सीधा-चौड़ा मगर
सडकों पर भटके अक्कड़बाज
बात समझ ना अब तक, ऐसा क्यों 
पगडंडियाँ रही सलिके से सदा
जो चलती रही,चलती रही
महंगे जूते पहने कुछ लोग
कुछ क्या चले पैदल ,नापते हैं दूरियाँ
कुछ बेचारे बिन जूतों के
मिलों-मिलों लांगते हैं
गूंगी सी वो चिपटी रहती धरती से
जानती है सभी को अच्छे से
बोली नहीं बस सहती आई है
मौन धरा है जब से बनी है
सीधे-सीधे चलती है
वो कभी-कभार मुड़ जाती
उसके साथी अगल बगल हैं
कटे पेड़ और कुछ ठूंठ बचे हैं
कोई थूंकता है जोर से उस पर
कोई लिपट-चिपट सोता है
सड़क  भी सादगी को ओढ़े है
एक प्रश्न पूछना जरुरी है
क्या वो भी स्त्रीलिंग है ?

 
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