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04 फ़रवरी, 2011

(सम्पादकीय):-मन कचोटता है-1

                    गणतंत्र पर बहुत सी शुभकामनाओं के साथ मैं अपनी माटी वेब पत्रिका परिवार की तरफ से आप सभी के लिए इस नए साल में बहुत सी मंगलकामनाएं मन मैं दबाए रखे था,आज उजागर करता हूँ. देश में कई तरह से उलटफेर की कवायदें चल रही हैं.देश के पैसे को देश में लाने के लिए कुदाफांदी चल रही हैं .होना करना कुछ नहीं है,ऐसा मेरा मन कहता है.साहित्य जगत में जयपुर साहित्यिक उत्सव का भी हम पर पूरा असर हैं.पहली बार किसी साहित्यिक उत्सव को इस तरह से व्यावसायिक अंदाज में देखा सुना है.आयोजन को लेकर तरह तरह की रपटें हमने पढी है. इन सभी के बाद भी दिल कहता है चलो साहित्य के प्रचार प्रसार को लेकर कुछ तो हो रहा है.वैसे भी अभी साहित्य,कला और पुरातन महत्व के आयोजन को अच्छे प्रायोजक मिलना आश्चर्यजनक  लगता है.सभी कहते हैं अच्छा समय जल्द आयेगा.

                      ये तो हमारा मन जानता है कि अच्छे समय के इंतज़ार में हमारी आँखें कितनी हद तक बुढ़ा गई हैं.अब प्रायोजक जात के इन उद्योगपतियों को कौन समझाए कि कुछ आयोजन ऐसे भी होते हैं जिनसे सीधा लाभ नहीं मिल सकता,ये बात कौन समझाएं उन फेक्ट्री मालिकों को जिन्हें खुद आगे हो सामाजिक दायित्व निभाने चाहिए.कहो न कहो ये ही आज के राजा महाराजा है.ये और बात है कि राजा महाराजा के काल में भी साहित्य जगत और कलाकारियों का कितना भला हुआ है,सब जानते हैं..समय के साथ बहुत बदलाव हो रहे हैं. मगर गलत दिशा में होने वाले बदलाव मन को हिला देते हैं.

                   इसी माह तीन बड़े कलाकारों के साथ कुछ समय बातचीत का मौक़ा मिला.बातों के बीच से निकले मुद्दों में मैंने यही पाया कि समय की मांग है कि कलाकार भी अपनी कलाकारी के लिए व्यावसायिक दौड़भाग करें. जब समाज ही अपने दायित्वों में पीछे हटा जा रहा है तो ये प्रवृतियां तो सामने आएगी ही.आखिर कर साहित्य और ललित कलाओं से जुड़ाव वाले ये मानुस भी अपने घर परिवार को लेकर बैठें हैं.आयोजनों में मिलने वाले मानदेय के पीछे की कहानियां भी झकझोरने वाली होने लगी हैं,जिसमें कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता कलाकार मंडली से ज्यादा तो आयोजक कम्पनियां खुद ही खा जाती है,और गुरुओं का भरपूर शोषण होता है.तमाम बातें हैं.एक बातौर कि आज़कल स्वयंसेवा की भावना कमतर होती दिख रही हैं वहीं कोई पूर्णरूपेण सेवा के भाव काम करता दिखे तो उसे संदेह की नज़र के काबिल मान लिया जाता है.समय बड़ा ही बेढंग की चाल चल रहा है. ऐसे में कदमों को संभल कर रखने की सलाह है.


               इन सभी बातों के बीच ही मन कचोटता है कई बार.समाज में चौतरफा बदलाव के हालात में रद्दोबदल कर दिशा और दशा ठीक करने का मन करता है.मगर सारे काम धीरे-धीरे ही अपनी गति पकड़ेंगे,यही सोचकर फिर से अपने विचारों को कुछ और साथियों तक फैलाने में लग जाते हैं.कभी तो ये समाज का ढांचा हमारे मन का होगा.बस आस लगाए बैठे हैं.एक और दीगर बात कि  जनवरी के अंत में ही देशभर के आमजन में ''मिले सुर मेरा तुम्हारा'' के ज़रिए अपनी छवि बनाने वाले विराट कलाविद पंडित भीमसेन जोशी का चला जाना बहुत अखरेगा.हो सकता है कि अजानकार उन्हें भारत रत्न होने से आदर देते होंगे,मगर जानकार और कानकार लोग उनकी गायकी की ऊंचाइयों से भलीभांती वाकिफ हैं.उस महान इंसान और गायक को हम दिल से याद करते हैं.साथ ही साहित्य और कला जगत के उन तमाम सक्रीय संस्कृतिकर्मियों को बहुत बधाइयां ,जिन्हें हाल ही में घोषित किए पद्म सम्मान और केन्द्रीय संगीत नाटक अकादेमी सम्मान से नवाज़ा गया है.

                
बाकी सानंद




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