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07 फ़रवरी, 2011

किले में कविता:-मस्टररोल की हाज़री

मस्टररोल की हाज़री

मदन-मोहम्मद,घासी-गीता
इसी भांत के कुछ मज़दूर
विक्रम-बेताल से कन्धों पर बैठ
चढ़े-उतारे गीली रस्सी,बांस अनेक   
लटके घंटों लक्कड़छाप मचानों पर
साँसें लटकी अधरझूल में भटकी 
नानू-हीरा,मगना-मोती रहे रेत में घंटों
पहाड़ से बुढ़ापे के हाँपते पड़ाव ओढ़े 
देखे कई मज़ूर मज़बूरी के जाए
जुटे रहे सतत,दिन चढ़ा परवान
कोंपलें फूटी अब जाकर
नज़रों में आया दिवारों में उगा हुआ 
कहीं गुम्बदों पर छाया जिर्णोद्धार
यात्रा बेहद लम्बी है
बनने,बिगड़ने और सुधरने की
फुरसत में खुलेंगे राज़ कभी  
यूं ही नहीं चढ़ा नया रंग पुराने पर
जीवनसंकट उपजा भारी
चूल्हे का हाहाकार मचा
कि आते ही भर गया मस्टररोल
आए मज़ूर जब पूरब के गांवों से 
कि बल्लियों पर लटके युवा कई तीस के 
साठ-पैंसठ के धूजते कारीगरी हाथों से
छैनी हथोड़ें उछले-टकराए कई बार
चटका न एक पत्थर
सींच-खोदकर कोई धंसा धरती में
तब उमड़ा,कुछ उपर उठा 
आँगन बना बगीचा
वो शरीरहिलाऊ फ़िल्मी गीत
थकनमिटाते ,बनते दिनभर सहचर
मिलेजुले के उसी आलम से 
चमके महल-चौबारे
कुछ जंगल कुछ आँगन
क्यूं अब तक छूटे बाकी 
काट-छाँट की इस कतरन से
फिर भी निकला है जिर्णोद्धार
इधर तीन-चार की एक टोली 
केमिकल से धोती दीवार दिनभर
चुटकी में थूंक आई पान-तम्बाकू जहां 
संस्कारित समाज की युवा पीढ़ी
दूजी बन्दर जात तोड़ गई
कई महलों के पुराने छज्जे जिनकी
टुकड़ों में होती मल्हम-पट्टी लगती है 
रिपसपट्टी से फटी पेंट पर
लगे ठेगरों की मानिंद
देती बचपन की सपाट या सटीक परिभाषा
यहीं नज़ारा एक अनोखा
 जेक-चेक से मिले नौकरी
मेहनत रोती कौने में 
 चयनित मंदिर चमक उठे
यूं आपस की रिश्तेदारी से
कुछ मिनारें उपर उठ गई
कुछ के छज्जे बदल गए
बेचारे,कुछ बेबाप के से पतले गुम्बद
इस बारी भी खड़े रहे कतारों में
यहाँ न लगती बी.पी.एल.की पृथक पंक्ति
न मिलता राशन पंक्ति से माहवार
बस जितना हुआ,उतना हुआ 
बाकी अगले मस्टररोल की बाट
कितनी पीड़ा,कितनी मुश्किल
यहीं-कहीं भोर और दोपहरी के बीच
टिफिन तड़फता है लगातार
तब पनपता है जिर्णोद्धार
घड़ीभर सुस्ती,एक बाज़ी तास-पत्ती
और तीन पत्थरों पर
अलुमिनियम की तपीली में उफनती चाय
यही आराम बक्शा हमने उनकों 
जो उकेरते रहे अपनी उम्र पत्थरों पर
और ठेलते रहे अहसानों के थैले सिर पर
हमारी कथित पहचान के हित
पौ फटने से शाम ढलने तक
चलते रहे औरों की खातिर
निज घर भूले मज़दूर
रात भी खाली गई नहीं
कई तरह के सपने देखे
सीमेंट-चुने में मिला-मिलाकर 
लुटा दिया सब अपना प्यार 
जिनको समझा हमने केवल
मस्टररोल की हाज़री
वो हरपल बुनते मिले जिर्णोद्धार
 
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