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10 फ़रवरी, 2011

कविता:-आज का दौर



रक्खा है बड़े दिल से 
दुकानों में लाभ का सामान
मिलता है,बिकता है,दिखता है
ठीक सामने छपता है मोटे अक्षरों में 
ज्यादा लाभ देता हुआ आइटम
सबसे आगे जगह पाता है जुगाड़ू आदमी
कला,संस्कृति यहाँ आकर रूप धरती है
झंझट-झमेला और फुरसतदारी के 
ये पक्के सौदों का दौर हैं
यहाँ घाटे का नही काम 
नैन बावरे हुए कि नज़र धुंधला गई  
हर तरफ दुकानें नज़र आती है

नियम,क़ानून-कायदे छत पर रक्खे हैं 
सूख जाने,तड़पने को धूप में 
रिश्तेदारी,जात-समाज,बिरादरी का अपनापन
कीमत सबकी तय हो गई है 
घर बाहर पाँव धरो तो संभलना भाई
भावों की मंडी में बिक जाएंगे भाव
कोई न लगा दे निलाम बोली राह चलते  
जितना बचाके रखा मान सम्मान
सब बिक जाएगा,चिंता रखो न कुछ भी  

यूं कूदा-फांदी करता है
मौल भाव सामने आकर 
चिढ़ाता है मन बसे मानव मूल्यों को
भड़काता है,उकसाता है
चरित्र की दीवार कूदने को देता सतत प्रेरण 
ये आज का दौर
शाश्वत गारंटीनुमा चिजें पिछे धकेलता
ये तुरत-फुरत का आदमी

बैठा गलतफहमी के पेड़ तले
मैं अब तक रहा अनजान 
बिकने लगे हैं बरगद तक
हम बबूल की क्या बिसात
हिलते,डुलते आदमी तक बिक गए 
टूट गए,सब हो लिए साथी
जिधर चला ज़माना दूकानदारी का  

अब भी आस बाकी है मन में
शायद जाग पड़े चेतना
मिले असल का ज्ञान 
खुद से बाहर झांके जल्दी 
अबतक सोया सुस्त अवाम 
कराहती है देश की हालत
मल्हमपट्टी को चले आओ
कि दुकानदारी अब यौवन पर है  

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