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15 फ़रवरी, 2011

बिम्ब:-अतीत के पन्नों से -2

बिम्ब:-अतीत के पन्नों से -2

घारे,बांस-बल्लियों से
बनते थे मकान अतीत में
थे अपनेपन से लथपथ पूरे
हाँ भुला नहीं हूँ मैं आज भी
अरसे पहले अलमारी में रखी डायरी
जो समेटती ज़रूरी तारीखें और अपनों के पते
एकाएक दिखी एडियों के बल उठती
अतीत के पन्नों से झांकती हुई
वर्तमान से उपजी उब
उकसाती है आज दिल को
कुछ देर की फुरसत पाकर
पन्ने अतीत के पलट लूं आज
जी कहता है कि
किसी पडत कविता को गुनगुनाऊँ कुछ देर
जहां छपे,लिखे और बने दिखे
संकड़ी गलियों में सटे हुए मकानों के
वो चौड़े दिल इंसान
धुंधलाती शक्लें ओढ़े
दीगर बात एक और कि
एक पेड़ केंसुले का दहकता था
महकते गुलमोहर से होड़ा-होड़ी में
अड़ा रहा बरसों
खेतों को जाते रास्ते
रामा भूरा के कुए वाले मुड़ाव पर
कहाँ फंस गया वो असल आनंद
अनूठा आभास रह गया कहाँ पिछे
जिसके नाम की हिचकियाँ भी नहीं रही बाकी
अटकी-भटकी कहाँ गले में राम जाने
कि
लकदक जिससे हम फुदकते थे
नापते नंगे पाँव पगडंडियाँ गांवों की
उछलती और उफनती हुई-सी आवारा आवाजें
हमारी ही हुआ करती थी
बेहिसाब और आवारा किस्म की
और झोड़-बाकी के गणित से बिल्कुल परे
स्नेह से लबरेज़
दे जाती थी कई अचरज एक साथ
कि
लोटपोट अतीत गुदगुदाता है
अतीत के पन्नों से आज भी 
 
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