कभी सरपट सड़क पर फटफट दौड़ती कारों सी
धारदार बहती थी नदी मेरे शहर की
कभी मारे खुशी के वो बावरी
पूल तक जा थप्पी दे आती थी
किलकाराते बच्चों की मानिंद
उठती थी लहरें पंक्तिवार
सबकुछ कल की बात हुआ
कि
बेचिंता थे जलचर सारे
मछलियाँ डोलती फिरती थी बेचिंता
किनारों को चूमती हिलोरें
उठती-गिरती बारम्बार
ऐसा देखने आ उमड़ता शहर पूरा
आनन पर तेज छप जाता था
नदी इतराती थी उस दिन भरसक
जिस भोर
किले वाली पहाडी की ओट से सूरज झांकता था
जान पड़ता था मानो
उठते घूंघट के हौलेपन-सा दीदार
धुलती हुई लगती
वक्त की जेबों में
भर देता खुशियाँ
नदी और सूरज के मिलन से उपजी ताका-झांकी
नूर बरसाती थी उस दौर मेंयाद है कुछ थोड़ा सा बस
हाँ बचीकुची स्मृति के पल्ले से कहता हूँ
कि
तलहटी के घरों में बसे
तसल्ली और धीरज जैसे सादे लोग
घरबार छोड़छाड़ जाने कहाँ चले गए
हाँ उनकी आँखों में तैरता था
सूरज का अनुशासन और नदी की चपलता
बसता था कहीं उनके जीवन में ही
कम बदलावभरी आदतों का शहर
लिख दिया है सबकुछ अच्छा-अच्छा
हमने अतीत के पन्नों में
फिसल गई है सारी राहें सुगम
यूं ही पर अब तो लगता है
हाथों से वर्तमान भी रिपसता है मेरे
नोस्टालजिक ! बढ़िया विम्ब संयोजन... इस खूबसूरत कविता के लिए बधाई..
जवाब देंहटाएंnadiyan thari hui hain aour gadiya sarpat daud rahi hain yeh tathakatht vikas ki keemat hai. aapki kawitayen dil se aati hain. is ghor kalyug main bap re bap......... ashok
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