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30 दिसंबर, 2011

सच को अब सपाट लिखें


सच को अब सपाट लिखें

तुम अब नया विचार दो कि
सच को अब हम सपाट लिखें
धुंधला रहे इस वितान को
यूं मिलके साफ-साफ लिखें

दूर-दूर महल खड़े हैं सारे
ढेरों अवशेष पड़े हैं दूर-दूर
गर तुम हाथ बढ़ाओ जरा
कुछ तो आस-पास लिखें

आते हुए नवाएँ लोग सर
यहाँ जाते हुए लगाए धोग
लड़ालूम हो जाए खँडहर यूं
उघड़ा हुआ इतिहास लिखें

जड़विहीन बेलों-सी बातें क्यूं सींचें
जब तथ्यों की टहनी खुद बात करें
किले को जाती राहों पर आओ
अब कुछ बरगद,फूल-बहार लिखें

खूब रही खुले में पथरीली दौलत
कानून-कायदों का कुछ भान करें
कि मधुशाला बनती इमारतों में
फिर जौहर-शाकों के अंगार लिखें

दनदनाती बंदूकें-तोफें मिली अतीत में
सहती,डरती,दबती और बुझती ऐसी ही
ढहती हुई इमारतों के हित आओ
कुछ गीत-गजल-मल्हार लिखें

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