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30 दिसंबर, 2011

मन की ठाने चार कबूतर


मन की ठाने चार कबूतर

जाने अनजाने
इतवार के इतवार किले में
हो जाता मेरा पगफेरा
शहर से कुछ ऊँचें पहाड़ पर
हाँ वीरान महलों का लगा एक डेरा
एकांत खोजते पाँव मेरे जा लांघते
महल-दर-महल,करते ड्योढी पार
नजर आते आँगन बैठे
चार कबूतर एकदम सीधे
सार खोजते बैठे चिंतनमग्न
कि भोंकें कुछ कुत्ते
जान-बूझकर और आदतवश
बैठक टूटी ,सारा निष्कर्ष रास्ता डूल गया
पर राह मिल गई उन्हें
जो बैठे ताक में यहीं कहीं
हसरत पूर गई बंदरों की मानों
जों ही कबूतरों की आशा डूब गई
सृजन-सरोकार नाम जैसे कबूतर उड़ चले
फिर इतवार की बारी में वो चार
फड़फडाते हुए मानो अभी चीर देंगें वितान
सहित उनके मैं एक भी चला अपनी ठोर
जाना उस दिन मैंने सच कबूला एक
कि नीरवता बेचारी कब तक रुकती
इस कलमुंही वानरराज में
बिना काम महल फिर हुआ बदनाम उधर
इधर बन्दर-कुत्ते कर गए अपना काम
सच आज मूंह फाड़ कर चिल्लाता है
कि सज्जन,साधुजन अब न खोजे विराना
इन खंडहरों सी इमारतों में
अब बसती है कान फाड़ती भगदड़
जी मेरा.कलम मेरी,कागज मेरा कुर्बान
फिर उन्ही चार कबूतरों के होंसलों पर
जो होंसला बंधाती मुझे भी लिखने को कहते
बेपरवाह,हो निडर फिर आ बैठते आँगन में
वो चार कबूतर
इतवार के इतवार

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