Loading...
27 फ़रवरी, 2012

कविता-ये दुपहरी धूप.

 ये दुपहरी धूप 

ये दुपहरी धूप
अब तेज़ और तीखी है
हाथ-पाँव और बदन सहित
जलाने को सबकुछ 
आमादा खड़ी है मानो
जलाना ही सीखी है
ये दुपहरी धूप

दरख़्त क्या,कोंपलें क्या
चलती राहें तक मौन हुई
आखिर उड़ गया भाप बन 
तमाम पानी,पोखर क्या
छत आँगन सब और बही 
ये दुपहरी धूप

घोंसलों में जा घुसे हैं
खग सारे कलरावते
सांझ होने पर मिलेंगे
कहते हुए उल्लासते
केंद्र सभी की बातों का
यूं बस एक ही हाँ एक ही
ये दुपहरी धूप

सुहाती नहीं आँखों को
अखरती है,तपाती है
पूरी काया जन-जन की
एक न सुनती ये अल्हड
अपने मन का करती है
ये दुपहरी धूप

विकट समय के बीज बोती
ये दुपहरी धूप
सबके घर है एक सी
ये चिलचिलाती धूप
सब हैं इसके ताप में
सबको ही चुपचापती
ये दुपहरी धूप

उम्र अधियाए रास्तों पर
कैसे-कैसे गीत गाती है
ये दुपहरी धूप
बिछी चोपड़ें उलट जाती
ऊपर से बेहया जोरों से 
चिढाती और खिलखिलाती
ये दुपहरी धूप 

(नोट:-इन रचनाओं का उपयोग करने से पहले माणिक की अनुमति ज़रूरी होगी.कृपया सूचित करिएगा.)
 
TOP