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03 मार्च, 2012

03-03-2012

ग्यारह घंटे की लम्बी यात्रा के बाद,पूरी तरह थका-मांदा,बीमार शक्ल सहित,घर आते ही आराम की सांस ली ,खाना खाके ऊपर से चाय पीकर करार अनुभव किया.अब सर दर्द ठीक है.सोचा आज की डायरी लिख लूं नहीं तो ये नज़ारा कहीं विस्मृत न हो जाए.मैं इसे भूलना नहीं चाहता.ये यात्रा आकाशवाणी के लिए प्रतापगढ़ जिले की आदिवासी बहुल तहसील पीपलखूंट में एक भारत निर्माण जन सूचना अभियान के उदघाटन सत्र की रिकोर्डिंग करने बाबत थी.आने-जाने का किराया दो सौ बारह,लगभग एक सौ चालीस किलो मीटर,रोडवेज की बस में ही आते-जाते टिकट लेकर यात्रा.बिलकुल अकेले,जाते समय बनास जन जैसी लघु पत्रिका का प्रवेशांक पूरा चाट लिया.मीरा के समाज जैसे विषय पर डॉ. माधव हाडा का एकदम नई दृष्टी से लिखा गया लंबा आलेख.इतिहास और साहित्य दोनों को साथ लेते हुए.मीरा पर अब तक की मेरी समझ को पीछे धकेलता हुआ ये आलेख मुझे फिर से नई तरह से सोचने को प्रेरित कर गया.मीराकालीन समय की तमाम जातियों/समाज के वर्गों और उन पर अब तक के शोधकर्ताओं को  लंघी  डाल  कर पटकने देता हुआ लगा ये आलेख था.  

पीपलखूंट में माही नदी के किनारे होने वाले इस आयोजन से ठीक पहले का समय नदी किनारे ही काटा.गज़ब आलम था.सारे सरकारी कार्यालय नदी के किनारे.सभी नदी की तरफ ही अपने प्रवेश द्वार खोले हुए.बारिस के दिन बीते महीनों गुजर गए तो अब नदी एक तन्वंगी की तरह लग रहे थी.ये समय मार्च की शुरुआत का था.नहाने-धोने के कई सारे घाट,पल्ली तरफ के कुछ गाँव  के लोग नदी को सीधे पार कर आते हुए,किनारे बने एक शिवालय,पौधशाला को देखा,वहाँ काम करती आदीवासी बालाएं नव पौध लगती या कोंपलों से कम नहीं थी.कम पढी लिखी मगर अपने घर-परिवार के लिए पैसे कमाने मजूरी पर थी.मैं उनकी आपसी की कानाफूसी की वागडी बोली नहीं समझ पा रहा था और वे मुझे शहर का हिन्दी भाषी जान टुकुरती रही.मैं भी किसी विदेशी के तरह वहाँ देर तक चुपचाप टहलता रहा.इस यात्रा का ये दृश्य मेरी प्राथमिकता में पहले से ही था.थोड़े बहुत पढ़े लिखे युवा चेहरों से मैंने बतियाते हुए जिज्ञासावश  कुछ जानकारियाँ  भी जुटाई.

समारोह के निमित्त निकाली रैली के आखिर में पांडाल रूपी मंझिल पाकर प्रसन्न हुए स्कूली बच्चे आ बैठे और आयोजन शुरू हुआ.ग्रामीण जनों सहित जनप्रतिनिधि पूरा जमघट फब रहा था.मानो उसी दिन पूरा का पूरा भारत निर्माण होके रहेगा.तीस दुकानों में समस्त सरकारी योजनाओं की जानकारियाँ उबक रही थी.ज्ञान बटोरते हुए वे तमाम पढ़े हुए/अनपढ़ लोग कई तरह के पेम्पलेट घर के लिए लेते हुए मेले में घूम रहे थे.मनोरम दृश्य था.रिकोर्डिंग का काम निबटाते ही मेरा मन तो आयोजन के बाजू में बहती माही नदी को फिर निहारने का था मगर चित्तौड़ के लिए समय रहते घर पहूंचने की मेरे पारिवारिक मज़बूरी ने मुझे नदी की तरफ रोक दिया.मैं अनमना घर लौटा.काम तो पूर गया मगर मेरा मन कहता है कि माही मेरा इंतज़ार कर रही होगी.मैं उससे मिलने फिर जाउंगा बरसात के दिनों में जब वो पूरी तरह से उमंघो के दौर में जी रही होगी.

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