'शुक्रवार' का साहित्य वार्षिकी अंक पढ़ने में आनंद आ रहा है..आज कथाकार स्वयं प्रकाश और आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी के संस्मरण पढ़े.कनक भैया का आभार जिनके ज़रिये ये अंक मेरे हाथ लगा.जब भी चंद्रकांत देवताले की कवितायेँ पढ़कर रस बदलना चाहता हूँ. ये अंक पढ़ने लग जाता हूँ.विष्णु नागर के व्यंग्यात्मक निबंध पढ़ने के बाद जब उनकी सम्पादकीय पढ़ी.बिल्कुल विलग.आत्मीयता से भरपूर.लगा कि सम्पादक होने के क्या मायने हैं.कितना मुश्किल सफ़र है.काट-छांट की इस दुनिया में बहुत से मित्र और दुश्मन बनते होंगे.शुरुआती पन्नों में सिमटी सबसे ज़रूरी परिचर्चा ने पर्याप्त रूप से नए विमर्श को उपजाने की कोशिश की है.लम्बे समय बाद कृष्णा सोबती,अशोक वाजपेयी और रवीश कुमार का लेखन प्रिंट रूप में पढ़ा.अंक पढ़ना जारी है......
पत्नी के लिए दसवीं ओपन की परीक्षाएं जारी है.इधर आखा तीज के सावे के हित जीमने को न्योतती पत्रिकाएँ आना शुरू हो गयी है.घर के बाहर की बात करें तो चित्तौड़ शहर में कुम्भानगर रेल्वे फाटक का ओवर ब्रिज आधा ही बन पाया है.नेहरू गार्डन का सड़क की तरफ का कुछ हिस्सा शायद तोड़ना पडेगा.जिला क्लब में एक स्विमिंग पूल बन रहा है.प्लोटों के बिजनस के चलते खेतों में खेती होना बंद हो गया है.शहर में प्लाट का भाव सात से आठ सौ रुपये वर्ग फीट है वो भी शहर के लगभग किनोर पर.तीन सौ रुपये के भाव का हिसाब बिठाना हो तो हमें उदयपुर रोड़ पर रिठोला चौराहा जाना पड़ेगा.या कि फिर ओछड़ी के बाद वाले जालमपुरा के आसपास.हाँ आजकल कोटा रोड़ पर भी मानपुरा और गोपालनगर के बीच ज़मीन इस भाव में मिल जाती है.इधर गंगरार तक जाना होगा.कुल मिलाकर शहर के चारों तरफ फ़ैल चुके फॉर लेन इलाके के बीच के घेरे में चित्तौड़ पसर चुका है.दिल के साथ ही घरों के बीच भी अब दूरियाँ बढ़ रही है.रोने और हँसने की क्रिया को एक साथ करने का मन हो रहा है.
आजकल यहाँ कलेक्टर रवि जैन है.मगर यहाँ के लोगों को कलेक्टर के नाम पर सिर्फ डॉ.समित शर्मा याद आते हैं.विकास हो रहा है,मगर चरित्र के नाम पर हम विकट समय की तरफ बढ़ रहे हैं.अरे हाँ यहाँ भी दूजे शहर की तरह तथाकथित सामाजिक संस्थाएं हैं.संगठन हैं.उनके अपने मुद्दे हैं.समय के हिसाब से उनके अपने स्टेंड हैं.यहाँ भी तमाम आयोजन और उनके योजनाबद्ध प्रचार-प्रसार होते हैं.बंधे बंधाए श्रोता और दर्शक वर्ग हैं.पर्याप्त दीवारें और दरवाजे लगे हैं.चौराहों पर मिलने वालों की भीड़ घटती जा रही.यहाँ भी लोग टी.वी. के आगे चिपकने में बुद्धिमानी समझते हैं.कभी कभी मुझे इस चित्तौड़ में एक सर्व सुविधायुक्त ऑडिटोरियम की कमी हमेशा खलती है.कोई भी बैठक या कवि गोष्ठी की बात चले तो स्थान को लेकर हमविचार साथी घंटे भर सोचते हैं.नतीजतन कोई मुफीद जगह नहीं मिल पाती, ऐसा क्यों.मध्यवित्त संस्थाएं जगह का भी किराया देगी तो फिर चलेगी कैसे?
एक बात और शहर के बीच बहती नदी गंभीरी को किले आते-जाते देख मेरा दिल बहुत जलता है.इसकी बेतुकी शक्ल के लिए ज़िम्मेदार लोग मेरी आँखों में खटकते हैं.प्लास्टिक,कपड़े,टायर जैसी गन्दगी हो या घरों के देवताओं के धूप-अगरबत्ती,फूल-फांकड़े का निपटान,सभी की मंझिल यही गंभीरी.सभी का उद्धार करती हुई रोते रोते बहती है.बासती हुए इस नदी का दर्द इस बहरी जनता को कहाँ सुनाई देता है.नदी को लेकर मेरे मन में उभरे तमाम दृश्य कई साफ़-सुथरी नदियों के किनारे बसी आध्यात्मिकता और वहाँ के शहरों से चित्तौड़ की तुलना करते हैं.जहां नदी सालभर एक सी बहती है.इधर चित्तौड़ में दो एनिकटों के बीच हवा के संग हिलोरे मारता पानी जल चक्र के साथ ही जन्मता और मरता है.आखिर में मन करता है इस नदी के किनारे वाली इलाके की ज़मीन शहर के आसपास होने पर उसे इक्को फ्री ज़ोन घोषित करवा दूं.पूरे शहर में नदी के दोनों किनारे घाट बनवा दूं.जहां इस भागती ज़िंदगी में सभी के लिए शाम या सवेरे के समय जो भी सुविधाजनक हो कुछ देर यहाँ किनारे पर साप्ताहिक रूप से बैठना ज़रूरी कर दूं.पर बस चले तब ना........
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