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06 अप्रैल, 2012

कविता-चाँद के इर्द गिर्द

(1)
ये वही चाँद है ना
जो देर तक रुका हुआ सा
लगता रहा आकाश में
एकटक
ठहरा हुआ
एक ठौर चिपका हुआ
मेरी ढ़ाई साला बेटी
के चन्दा मामा-सा

(2)
पूर्णिमा तुम्हें
पूरी गोलाई के साथ
आकाश में तकने को
गुज़ारे हैं 
पूरे तीस दिन मैंने
तब कहीं मिली
अब जाकर तुम
अल्हड़ और धुली
हुई चांदनी सहित 

(3)
और कहो कितना करूँ
इंतज़ार तुम्हारा
गिनू कितनी बार
चंद्रकलाओं के फेरे 
तमाम मौसम
आए गए हो गए
अब भी  है इंतज़ार
बाकी बचा तुम्हारा

(4)
तुम्हारा होना चाहता हूँ
मुंडेर से कहुनी टिकाए
तकना चाहता हूँ तुम्हें
लगातार 
आख़िरी छोर तक
होते हुए ओझल

(5)
बातें तमाम याद है
आज भी भूला नहीं हूँ
चाहतों में उड़ी हुई नींदे
करवटों के बीच
आती हुई झपकियाँ

(6)
पूरी रात
देर तक
टहलते चाँद को
देखती रही 
कुमुदनी
चुपचाप/लगातार/एकटक

(7)
कहाँ सोने देती है
यादों से बुनी कवितायेँ
लौटकर आती है
होंठों पर
बैठती बारबार
गाते हुए खुद को

(8)
कहे न कहे
हमारी ही तरह
चाँद भी खोया है
आज ख़यालों में किसी के
हमारी ही तरह

(ये कवितायेँ शुक्रवार(06-04-2012) को आकाशवाणी में रात नौ बजे प्रसारित हुए एक कार्यक्रम के दौरान प्रकाश जी खत्री के निर्देशन में दिए एक फिल्म संगीत के लिए लिखी गयी थी.)

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