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30 जून, 2012

30-06-2012

चित्तौड़ में मानसून की पहली बारिश। गाँव/किसान को खेत दिखा,शहर को पिकनिक स्पोट,चंद आदमियों को किला दिखा,बाकी चुने हुए लोग भी मौजूद है इस फिज़ा में जो बारामदे में बैठे उस गुलमोहर और बोगोनविलिया को निहारते रहे जो भरी गर्मियों में भी हरियाता हुआ खड़ा रहा।अपना अपना ख़याल करने का अंदाज़ है।किसी को पत्नियां याद आई।कहीं पत्नियों को पति भी याद आये होंगे।बहुत सी माँओं को छत पर बच्चों के सुखते कपड़ों की याद हो आई।कई भाभियाँ आँगन में धूप के लिए फैलाई दाल अवेरने लगी।ये सारे नज़ारे हमारी विविधता भरी सामाजिक दृष्टि से निकल आते हैं।फुंहारों में नहाते उन बच्चों के बीच से मैंने बचपन का बेफिक्र जीवन भी झांकता हुआ देखा है।बारिश के ठीक बाद पेड़ों से झरती बूंदों में हाल नहाई किसी योवना के दर्शन भी इसी मौसम का ही कोई खुबसूरत उत्पाद हो सकता है।बारिश में अधभीगे इंसान के शायद यही विचार हों।मेरी तरह 

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