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14 अक्टूबर, 2012

14-10-2012

कल शाम ऐसी ही गुज़र गयी जिसके पन्नों पर लिखा गया कि गूगल बुक से  जाने माने कथाकार उदयप्रकाश की रचना 'पीली छतरी वाली लड़की' के अंश मुझ जैसे आलसी द्वारा पढ़े गए। आनंद आ गया। हमारे समाज की नंगाई और समसामयिक चित्रण गज़ब का गज़ब की दिलेरी के साथ किया है  उदय साहेब ने। पढ़ते-पढ़ते खो गया। पढ़ने की आदत के छूट  जाने से होने वाले नुकसान और इसी कारण देर से समझ  में आने वाली दुनिया के ख़याल आने लगे। बाकी अंश भी जल्द पढूंगा और हो सका तो प्रिंट फॉर्म में पढ़ना चाहूँगा। उदय जी के बाकी काम को पढने की ललक जागी है। उन्हें टुकड़ों में मोहल्ला लाईव आदि जगहों पर तो पढ़ता रहा हूँ। मगर एकमुश्त पढ़ें और गुनने का आनंद कुछ विलग ही होता है। शायद।


इधर आज शास्त्रीय संगीत में मेरी रूचि मुझे छानबीन करते हुए वहाँ ले गयी जहां लिखा हुआ था आज मशहूर सितार वादक पंडित निखिल बेनर्जी साहेब का जन्मदिन है। कुछ और खोजा तो पता लगा वे 1986 में ही गुज़र गए। 54 साल की उम्र बिताई उन्होंने। उनका ताल्लुक मैहर घराने से था।वही शहर जो मध्य प्रदेश में हर बरस उस्ताद अलादिया खान साहेब की याद में फरवरी के आसपास एक बड़ा सांगीतिक आयोजन करता है।

असल में आज रविवार का दिन तो हरी प्रसाद जी की बांसुरी को सुनते हुए शुरू हुआ था। बाद में फेसबुक टटोलते हुए जनसत्ता के सम्पादक ॐ थानवी जी की वाल से पता लगा भारतीय रेलवे ने चयनित रेलों में शास्त्रीय गायन और वादन की सी डी  बजाना शुरू किया है। जानकारी की दूजी पंक्ति में डागर बंधुओं के ध्रुपद गायन का ज़िक्र था।

उस्ताद फहीमुद्दीन डागर साहेब 
मुझे याद आया मैंने डागर बंधू हमेशा सुना मगर दो डागर भाइयों को एक साथ कभी नहीं सूना। खैर। ध्रुपद शैली के नाम से पहले तो रूद्र वीणा बजाने वाले उस्ताद असद अली खान साहेब याद आये।जिन्हें  पांच छ: दिन तक पश्चिमी राजस्थान में एक सांस्कृतिक यात्रा में ले जाने का सुख पाया। ले क्या गया,मुझ जैसे अजानकार को उन्होंने अपने साथ रखा। इस यात्रा में बहुत करीब से मैंने नाथद्वारा वाले पखावज वादक पंडित डालचंद मिश्रा को सूना-जाना। उनके  किस्से और बातें भी  बहुत गुदगुदाती है। हाँ तो मैंने उस्ताद वसिफ्फुद्दीन डागर को चित्तौड़ में 2002 में सूना जब वे 'उस्ताद' नहीं लगाते थे। वैसे भी ये बड़ा कन्फयूजिंग है कब 'उस्ताद' लगाए कब न लगाए। लगाओ तो  सभा में उपस्थित बड़े कलाकार नाराज़, न लगाओ तो खुद साहेब नाराज़।बड़े भान से ऐसे शब्द उपयोग किये जाते हैं।उदघोषक खाली माईक के सामने बोलने को नहीं कहा जाता।

उस्ताद असद अली खान साहेब 
स्पिक मैके  की जय हो कि  मैंने उस्ताद फहीमुद्दीन डागर साहेब को बहुत बार सूना। निम्बाहेड़ा , कोहिमा, दिल्ली, जाने कहाँ कहाँ। कई बार उस्ताद फरिद्दुदीन डागर साहेब को भी। कभी गाज़ियाबाद,कभी बनारस तो कभी जम्मू ,सारे सत्र आँखों के सामने तैर रहे हैं। रूद्र वीणा पर कभी युवा कलाविद उस्ताद बहाउद्दीन डागर को भी सुनने को मौक़ा मिला ।बड़ी सुघड़ परम्परा है। नाद के महत्व जानने और योग साधना का विशिष्ट तरिका है। 

अरे हाँ सुबह के चार से सात बजे तक, वो भी पूरे पांच दिन तक , केवल 'सा' लगाने और सरगम आलापने के उस आश्रमी जीवन का सही मायना और मतलब अब दिमाग में बैठ रहा है। ये सच कबूलने में मुझे दिक्कत नहीं है। ये सारा अंश हरिप्रसाद जी का बजाया राग अहीर भैरव सुनते हुए लिखा गया है इस बात का भान रहे। आपकी इजाज़त हो तो अब मन है डायरी पूरी कर इत्मीनान से कुछ देर पंडित निखिल बेनर्जी साहेब और डागर बंधुओं में में से किसी एक को सुनूँ। शुक्रिया साथियों।

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