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13 जून, 2013

13-06-2013

रोज़ भ्रह्म मुहूर्त में  उठ योग-प्राणायाम करने की कसम खा के सोने वाले अक्सर सुबह देर तक बिस्तर में पोड़े पाए जाते हैं।कसमें खाने और उन्हें तोड़ने की रोचक परम्पराओं के बीच ऐसे भी लोग हैं खुद के साथ किये वादे यूं निभाते हैं कि सार्वजनिक नहीं होने से अकहे रह गए वे तमाम वादे लम्बे वक़्त तक दूसरों को चुपके चुपके प्रभाव में लेते रहते हैं। कंजूसी और मितव्ययता के बीच की बारीक समझ को सलीके से जीते लोग अपने आसपास को अनायास ही प्रेरित कर आगे बढ़ जाते हैं कि समय के उस दौर में प्रभावित हुआ एक युवतर आदमी तसल्ली की सांस लेता दिखता है।वहीं दूसरी तरफ सहज ढंग से जीता एक प्रौढ़ इंसान अपनी अच्छी आदत की तरह राह में लगातार चलता हैं।जो मासिक रूप से एक लाख कमाने के बाद भी तैंतीस सौ के मोबाईल से पांच साल निकाल लेने का जीवट रखता है, जिसे खुद की कार रात में अपने बंगले के गैराज में घुसाने के बजाय सरकारी सड़क पर खड़ी करने में एक अपराध बोध अनुभव हो।जो विचारों में आर्थिक बराबरी की वकालत करने के बाद जीवन शैली में भी खुद पर विलासिता के इल्ज़ामात के प्रति ज़रूरत के मुताबिक़ संवेदनशील हो।

क्या ऐसे इंसान से भी प्रेरित होने की ज़रूरत नहीं हैं। समाज और शहर में ऐसे गहरे विचारवान के होने से ज्यादा ज़रूरी बाकी समाज द्वारा उसके होने से लाभ लेने का मुद्दा है। एक आदमी जिसके आने-जाने के समय से आप घड़ी, मोबाईल और कम्प्यूटर का टाईम सेट कर सकते हैं उसका मित्र होने में क्या बुराई है।जिसकी उम्र मित्रता में बाधा नहीं हो उसके साथ की संगत लाखों की समझे। विचार और जीवन के स्तर पर दोगलेपन के इस आलम में अन्दर-बाहर से एक से ये लोग सफ़र के लिए बड़े मुफीद लगते हैं।
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