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15 जून, 2013

15-06-2013

भाई मेरे,कुछ आतम-ज्ञान सुनोगे। सरकारी नौकरी में सड़क किनारे की पोस्टिंग के लिए दो चीज़ें आवश्यक हैं एक महिला होना वो भी विधवा और परितक्त्या होगी तो काम जल्द होगा।अगर आप विधवा महिला नहीं हैं तो आपकी जेब में नोट जैसा कुछ होना चाहिए।ये नहीं तो हमारे नेताजी से ताल्लूकात तो होने ही चाहिए।कुछ भी नहीं हुआ तो आपको एक ही देहरी पर बार-बार जाने-इंतज़ार करने हाथा-जोड़ी करने की आदत पालनी होगी और तो और एक ठूंठ चेहरे की तरफ तब तक देखना होगा जब तक वो मुस्कुरा नहीं दे।एक मध्यस्त की जेब गर्म करने के साथ ही उसकी बेवकूफी भरी संगत में अपना अमूल्य वक़्त हवन करने को राजी होना पड़ेगा।सोच लो वो इंटीरियर वाला पोस्टिंग प्लेस ही ठीक रहेगा ना।काहे को जमेल में पड़ते हो।

पता नहीं महिला,विकलांग और जाने क्या-क्या होने के नाम पर कब तक गरियाते रहोगे मेरे भाई।वैसे भी इस स्त्री विमर्श से तो स्त्रियों के सशक्तीकरण की आस रही नहीं।जहां यौन स्वछंदता देना और उन्हें अपने पति के खिलाफ तैयार कर रणचंडी बनाने भर का काम हमारे अग्रज साथी कर  रहे हैं ना।खैर आत्म स्वाभिमान की चर्चाओं के बीच हमारे आसपास कितने ही ऐसे साथी हैं जो हालातों की दुहाई दे कर अवसरों को दूहते दिखे हैं।स्वाभिमान को गहन रखते हुए जी-हजुरिए बनते हमारे साथियों में अगर मास्टर जात भी शामिल होने लगते हैं तब दिल बड़ा दु:खी होता है।

हमारे गुरु सत्यनारायण व्यास जी कहते हैं कि अध्यापक सदैव सेलेरी के नाम पर एक स्कोलरशिप पाता है वो एक मानदेय मात्र है किसी नौकरी के बदले की तनख्वाह नहीं जो अच्छे भले आदमी को 'नौकर' की श्रेणी में ला खड़ा कर दे।एक विद्वान/लेखक/चिन्तक/सृजनकर्ता कभी भी नौकर नहीं हो सकता है।जब से वो खुद को एक नौकर समझने की सोचता है उसमें वे तमाम गुण खत्म होने लगते हैं जो उसे कभी लेखक/विद्वान/अध्याक/प्रोफ़ेसर/चित्रकार/रंगकर्मी और कलाकार बनाते रहे होंगे।

विद्वान अक्सर बड़े शहरों में जन्मते और बढ़ते हुए बड़े हो जाते हैं ये एक बड़ा हौवा बना रखा है।हौवा ये भी है कि अक्सर नए विचार उपर से आते हैं और छोटे-मझोले शहर केवल अनुकरण के नाम पर तैयार रहते हैं।बकौल ममता कालिया जी कि जब मैंने दिल्ली में अंगरेजी में स्नातकोत्तर के लिए प्रवेश लिया तो मैं दिल्ली के विद्यार्थियों के नाम से डरी हुई थी,मगर पता चला अंगरेजी के दस-पांचेक नारों को बातों के बीच चपर-चपर में बखानते वे लोग कितना कम पढ़े हैं जितना मैंने अंगरेजी लेखकों को बहुत पहले पढ़ लिया था।तो मामला वैसा नहीं होता जैसा अक्सर हम दूर से सोचे बैठे होते हैं।

तब एक विचार आया कि  अब 'चित्तौड़गढ़' प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध जाता हुआ अब बिना सोचे-जाने 'दिल्ली' से नहीं डरता है।मतलब किसी भी छोटे कस्बे  को पहले ही खुद को पठन/लेखन/मनन में छोटा समझ तथाकथित किसी भी बड़े शहर से तुलना करते वक़्त दम तोड़ने की ज़रूरत नहीं है। कभी कभार ये भी होता है कि गुरुओं के नाम पर कुछ फफूंद टाईप के स्वामी/गुरु/आका अपना फैलाव इस तरह कर लेते हैं कि पूरा-का-पूरा शहर उनके कब्जे में कमजोरी की तरफ बढ़ता है। एक भी ढ़ंग का शिष्य निकल कर नहीं आ पाता  है। कोई प्रतिभावान होता भी है तो उसे एक चमचे-चाटुकार की शक्ल में ढालने के सैकड़ों यत्न किये जाते हैं ।असल गुरु की पहचान किये बगैर उसके पैर दबाने, बिस्तर-तकिया लगाने, आयोजनों में प्रायोजित ढ़ंग से गुरु की तारीफें करने का कोई मतलब नहीं।योग्य इंसानों को 'नाजोगे' इंसानों में तब्दील करना हो तो किसी आडम्बरी बाबा में विश्वास व्यक्त कर लो। अपना तो विचार पक्का है कि 'बरगदों' से डर लगता है जनाब,हमें 'पल्लवन' के लिए खुला आकाश चाहिए
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हमारे देश की एक नामचीन शास्त्रीय गायिका गुरु विदुषी मालिनी राजुरकर जी ही नहीं कितने ही बड़े नाम है जिनसे मैं प्रभावित हूँ।एक दूसरे फिल्ड के गुरु से प्रेरित होने का अर्थ उसी फिल्ड में जाके हाथ आजमाने से नहीं है। प्रेरणा के लेवल पर हम अपने ही जीवन में कुछ नया कर गुज़रते हैं कि  बाद के समय में हमें वो गुरु याद आता है जो एक दोस्त भी हो सकता है।मुझे मालिनी जी का गायन बेहद पसंद है।अचरज की बात ये है कि मैं आज भी सरगम के अलावा शास्त्रीय संगीत में कोई क-का-केवड़ा नहीं जानता।जबकि एक से एक बड़े छोटे उस्तादों का फेन हूँ। जहां पहले से तय खाकों में हम कुछ भी नया ठूसने को मुश्किल से तैयार होते हैं वैसी स्तिथियों में आप देखिएगा कि ''अच्छी डिश खाना आने के लिए उसे बनाना आये कोई ज़रूरी नहीं।'' ये बात हाल की मुलाक़ात में पंडित शिव कुमार शर्मा ने आई आई एम् कोलकता में हमारे मगज में बिठा दी।---------------

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