आज शनिवार है। मतलब साफ़ है कि कल रविवार होगा और ये भी अंदाजा सही है कि कल शुक्रवार था। आज तेरह जुलाई है। अब ये मत कहना कि आपको भी ये राज़ पता लग गया कि कल के दूजे दिन पंद्रह जुलाई और उसके एक महीने बाद स्वतन्त्रता दिवस मनाया जाएगा। सैकंड सेटरडे को ऑफिस अक्सर बंद मिलते हैं। एटीएम हमेशा खुला मिलता है। डाकघर और आकाशवाणी में पांच दिन का सप्ताह होता है। गाड़ी चलाते वक़्त स्कार्फ बांधने से बहुत सी चीजें छिप जाती है। रोंग साइड पार्किंग से चालान बनाता है। ये तमाम ऐसे अंदाज़े हैं जिन्हें कहने और परोसने में दिमाग पर कम जोर पड़ता है। मतलब माथे की नशें फटती नहीं है। ज्यादा गणित नहीं लगानी पड़ती है। बस थैला उठाया और चल दो सब्जी मंडी की तरफ। चिन्तनरहित लफ्फाज़ी है ये।
बरसाती गड्डों में पाँव भचीकते बच्चों की तरह बेपरवाह होकर भी आप ऐसी बातें कर सकते हैं। बिलकुल उतने ही लापरवाह तरीके से जैसे हम मोबाइल पर बतियाते हुए बाइक भी चला लेते हैं। हमारे ही कई दोस्त अपनी ग़लत उदघोषणाओं से तय समय से पांच मिनट पहले भी रेडियो पर प्रादेशिक समाचार सुना देने की ताकत रखते हैं। ये अलग बात है कि बाद में वे मुआफी सहित अगली उदघोषणा प्रसारित कर दे और समाचार आने तक एक गीत और सुना दे। हदें पार करती लापरवाही भी देखने-सुनने काबिल है भाई। नौ बजे के कार्यक्रम में नौ बजकर एक मिनट हो जाने की बाद भी म्यूजिकल ब्रेक देना खुद की शान समझते हैं। लगभग अनजान टाइटल पर बिना लिखे ही मौखिक ज़ोर-आजमाईश कर उदबोधन देना कुछ साथियों की बेवकुफीभरी हरक़तों से ज्यादा क्या है। चीजों को सरल समझने और कम आँकने की हमारी अपनी धारणाएं (प्रथाएं) हैं।वैसे हालात बदलने के हित कुछ अच्छे सपने देखने में कोई हर्ज़ नहीं है।
कुछ का तो भगवान् ही मालिक है (अगर भगवान् कहीं है तो।)।बिना तैयारी मैदान में उतरने की सलाह देने वाले गुरुओं को सैंकड़ों प्रणाम जिन्होंने अपने शिष्यों को जाने-अनजाने इतना कमजोर बना डाला है कि वे सभी कमजोर और अल्पबुद्धि शिष्य अब कुछ सीखने की मुद्रा में नहीं रहे। कोई सज्जन उन सभी कमजोर बालकों में कुछ उंडेलना भी चाहे तो बना-बनाया प्रोजेक्ट फेल हो जाए। ग़लत परम्पराओं का बीजारोपण करने वाले इसीलिए सालों तक नहीं कई पीढ़ियों तक याद किए जाते हैं।उनका गुणगान हर उस चौपाल पर होता है जहां बेशर्म होकर हम किसी सामान्य बात पर कोई ग़लती कर बैठते हैं। धन्य हैं गेंडाछाप तम्बाकू खाने वाले सभी गुरुजन जो हथेली में चुना-तम्बाकू रगड़ते-रगड़ते ही हम सभी के हाथों में कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें खींच गए।बाद की स्कूलिंग की चर्चा छेड़ें तो भला हो उन अनौपचारिक बाबाओं का जो ठीक वक़्त पर रास्ता दिखा गए वरना किसी आश्रम में धुणी पर चिलम फूँक रहे होते।
पड़ी हुई आदतें बड़ी देर से सुधरती हैं। कई मर्तबा तो बाई याद आ जाती है।हमारे मेवाड़ में जाने क्या आंचलिक दुष्प्रभाव है कि हम सभी ज़िम्मेदार अध्यापक भी ग़लत उच्चारण के आदी हो चले हैं।संभाग के बाकी ज़िलों की बात नहीं भी छेड़ें तो भी हमारे यहाँ चित्तौड़ में बहुत कम लोग जानते हैं कि 'जिन्दगी' में नीचे नुक्ता लगता है और उसे 'ज़िंदगी' बोला जाता है। जबकि जीवन में कोई नुक्ता नहीं लगता है। हम आलसी लोग थ,ठ,ख,फ जैसे वर्ण बोलने में बड़ा आलस करते हैं। इकठ्ठा को इकट्टा, कथा को कता, गरिष्ठ को गरिष्ट, अख़बार को अगबार बोलने की जल्दी में रहते हैं। मसला छिड़ गया है तो कह दें कि यहाँ 'ए' और 'ऐ' में मात्रा का भेद सुनने से समझ नहीं आता है।लोग कैसा को केसा, ऐसा को एसा, सदैव को सदेव ही बोल कर खुद को पारंगत समझते हैं। कभी -कभी लगता है आज तक किसी ने नहीं टोका और तो और जब ग़लत से काम चल रहा है तो सही की ज़रूरत ही कहाँ है। वो ज़माना कब आयेगा जब उच्चारण के फिल्ड में काम करने वाले लोग भी 'घर' को 'गर' के बजाय 'घर' ही बोलेंगे। जब लोग किसी नए शब्द की देखभाल में या तफ़्तिश में शब्दकोशों को टटोलेंगे। आपको याद दिला दें कि बहुत कम लोग जानते हैं कि 'क़लम' शब्द बोलते वक़्त 'क़' में भी नीचे नुक्ता लगा हुआ माना जाए। 'ग़लत' में भी 'ग़' नुक्ता सहित वर्ण है।खैर ग़लत उच्चारण करने वाले इस पूरे समाज में मैं खुद को भी शामिल कर रहा हूँ मगर एक बात साफ़ कर दूं कि अपनी ग़लतियों को लेकर मैं सचेत हूँ।आप ?
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