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21 जुलाई, 2013

21-07-2013

सारी दुनिया एक तरफ और महीने में वरिष्ठ मित्रों के घर के चार चक्कर एक तरफ।दिलो-दिमाग का मेल साफ़ करने का इससे बेहतर और सस्ता इलाज शायद मैंने नहीं देखा।हमारी सोच से आगे का कुछ प्रेरित करने लायक सुनने के लिए शहर के लगभग बाहर और सबसे बड़े चिन्तक से मिलना ज़रूरी है। यहाँ बड़े का मतलब उम्र, शरीर, लेखन और मनन किसी से भी समझ लिजिएगा। हर बार यही सोच ठीक हो ज़रूरी नहीं शहर में बड़े पेट के अल्पबुद्धि लेखक भी मिलेंगे और दुबले पतले अथवा शुगर के मरीज होकर भी प्रखर पढ़ाकू। कोई निशक्त की श्रेणी में आकर भी शहर से बहुत दूर तक नाम कमाने वाले काम करके उन लठ्ठबुद्धि लोगों की सालों की मेहनत को पछाड़ रहा है। एक शहर साहित्यिक आयोजन के लिए तड़फ रहा है और उसके मूंह में कोई एक छोटी और अनौपचारिक गोष्ठी तक उंडेलने के लिए सजग नहीं है।एक शहर को बेलेंस करने के लिए हर टाइप के लोग चाहिए। कुछ फर्स्ट ग्रेड ऐसे हिन्दी अध्यापक भी हैं जिन्हें हिन्दी की एक भी पत्र-पत्रिका का नाम तक याद नहीं जब भी मिलो वे एक ही डायलॉग रटते हैं 'कोई कार्यसेवा हो तो बताना' खैर।उनसे क्या एक शोधरत साथी को तो ये भी मालुम नहीं कि प्रगतिशीलता क्या बला है? अब उससे वामपंथ और वैज्ञानिकता या फिर फ्रायड की चर्चा बेकार है 

मित्रों की इसी चौकड़ी में कई बार देखा है कि एक  दक्षिणपंथी मजमे में जाजम बिछाने से लेकर बड़े वक्ताओं के ग्रीन रूम की देखभाल का जिम्मा उठाने वाला आदमी अब कॉमरेड है। वहीं एक कॉमरेड तर्कों के सहारे कम्यूनिस्म को उदेड़ता है। इसी मित्र-मंडली में एक दक्षिणपंथी अपने तेजस्वी विचारों को रिश्तों के आड़े नहीं आने देता और सुविधाजनक रास्ता अख्तियार करता नज़र आता है। एक गांधीवादी-विवेकानन्दवादी है जो अपने ढंग से तर्क भी रखता है और उससे भी बड़ी बात ये कि उस पर आखिर तक कायम रहता है। एक प्रगतिशील ऐसा भी है जो प्रगतिशील पत्रिका में छप रहे धारावाहिक स्वरुप के अश्लीलता वर्णन पर विरोध करता है। अजीब है इसी समय में क्या कुछ छप रहा है ! बाप रे, एक पिता प्रगतिशील पत्रिका पढ़ता है मगर वह उस पत्रिका को अपने बेटी के लिए रिकमंड नहीं करता है। मतलब स्त्री विमर्श की आड़ में रास्ता भटके लोगों को अब तो खुद ही सोचना चाहिए अब क्या छापें या क्या नहीं। ऐसी पाठकीय टिप्पणियाँ सम्पादक तो पहुंचे। खैर ये मामला दूसरा हो जाएगा , मैं यहाँ खाली मित्रों की विविधता पर चुटकी ले रहा था। 

मिलने-जुलने का पहला अभियान उस शख्स के साथ शुरू करना चाहूँगा जिसके पिताजी जो मालवा में बारह में से छ:-छ; महीने पंडिताई करने के बाद एक ज़माने में अपना खर्चा काटकर बचे पचास के आसपास रुपये मनीऑर्डर से भेजते रहे। उन्हीं पैसों के इंतज़ार में पलते-बढ़ते पांच-छ: भाई-बहनों के बीच रहकर जिसने ग़रीबी देखी हों। किसी भी संगत में वो शख्स उन दिनों की बानगी देना नहीं भूलता जब बड़ी मुश्किल से पेट पलता था। एक आदमी जिसे अपना सबसे बुरा वक़्त याद रहे शायद रॉयल लाइफ़ के इन दिनों में ठोकर नहीं खाएगा।ये भी सच है कि दादा ने जितना दुःख देखा-भोगा, पिताजी ने नहीं भोगा। बेटे-बेटी भी कहते भले हों मगर पिताजी से तो कमतर दुःख ही देखा होगा। ग़रीबी पर दिए भाषण और चलते हुए विमर्श में ये बात बड़े मायने रखती है कि वक्ता महोदय पेटभरे लोगों की जमात से ताल्लुक रखते हैं या अभी भी मुफलिसी में जी रहे हैं। या ये भी कि उस आदमी का इतिहास क्या कहता है कहीं बचपने में बहुत फ़कीरी की हो

दूसरे चक्कर में चिंतन की दिशा ठीक करने का एक और नुस्खा ये भी कि आप शहर की एक चुनी हुई विचारक से मिलते-जुलते रहे कोई ज़रूरी नहीं कि आप विद्वान पिता और उन्हीं की विदुषी पुत्री से एक साथ मिलें और आपको दोनों के विचार से मुखातिब होने में सफलता मिल जाएँ। बेहतर होगा कभी-कभार दोनों से अलग-अलग मिलें। वे आपको ठंडा पानी पिलाएँगी, दो-चार गुणकारी बातें बताएँगी, आगे बढ़ने के लिए आपको लाइन अप करेंगी। ऐसे काम के लोगों के रिश्ते बड़े सहेज कर रखने चाहिए। ये भी हो सकता है कि वे आपको किसी हाल पढ़ी पुस्तक की फोरी तौर पर समीक्षा भी सुना दें।इस तरह किसी नयी पुस्तक के प्रति आप में पढ़ने की ललक पैदा करने और पुस्तक खरीदने के उस आधार के लिए आप उन्हें धन्यवाद भी दे सकते हैं। 

महीने का तीसरा चक्कर असल में चक्कर नहीं होकर सीधा जाना सीधा आना भी हो सकता है।हर बारगी मुलाक़ात विमर्श ही हों कतई ज़रूरी नहीं। किसी दूर के दोस्त की निंदा के नाम भी घंटा बीत सकता है।ग़र इसे निंदा विमर्श कहें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं बस साहित्य जगत के ठेकेदारों से एक बार पूछ लेना वरना पंगा हो जाएगा। बैठक में साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के लेखक परिवारों के गणित पर बात हो सकती हैं। बातों का क्या है; बिहार में पोषाहार से मरे बच्चों, कथन की सदस्यता, कॉलेज के टाइम टेबल में हिन्दी का पिरियड आख़िरी आने, अगले सन्डे पिकनिक की योजना जैसे कुछ भी विषयों पर हो सकती हैं
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फिल्म 'डी-डे' के ज़्यादातर गीतों में सूफिज्म सुना गया है,साथ ही 'भाग मिल्खा भाग' का भी 'ओ रंगरेज़' वाला गीत कुछ इसी तरह का है.मेरा मन ऐसे ही गीतों में रमता है. जैसे 'चक्रव्यूह' के उस गीत में जिसे उस्ताद राशिद खान ने गाया है.या फिर और उदाहरण सुनना चाहो तो 'गेंग्स ऑफ़ वासेपुर' में पीयूष मिश्रा का 'एक बगल में चाँद होगा'. अब तो आप मेरा टेस्ट समझ गए होंगे या कुछ और बताऊँ,चलो लास्ट एक और बता दूं 'आरक्षण' का पंडित छन्नू लाल जी मिश्र का गाया गीत 'साँस अलबेली' 

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