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16 अक्टूबर, 2013

''कौशिकी'' पत्रिका में कविताएँ

आदिवासी-आठ 

हदें पार करना नहीं आता उन्हें
तुम्हारी तरह
लूटने-खसोटने सहित
बदन नोचना उन्हें नहीं आता

जितना जिया जीवन उन्होंने
सीमाओं के भीतर ही जिया
घटित हुए  उनके सारे संस्कार
सीमाओं के भीतर

वे जब भी खुलकर खिलखिलाए
उनकी अपनी बोली में उपजे ठहाको के आसपास
टहलते दिखे

बतियाए बेहिचक जब भी
वे मिले बीड़ी-तम्बाकू पीते
हमजात बिरादरी के बीच
किसी चबूतरे या घने पेड़ के नीचे
सधी हुई गोलाकार सभा में
उन्हीं की बातों पर हुंकारे भरते सुने गए

दूर-दूर तक
उल्लासभरे उनके चेहरों पर
नहीं था मौत का डर
वे महफूज ही थे
तुम्हारी घुसपेठ से ठीक पहले तक
राजीखुशी थे वे सभी
जंगलों,गुफाओं और पहाड़ों में
अब तक

लकीरें खींच गयी हैं उनके माथों पर
कुछ सालों से
हाथों में आ गए हैं उनके अनायास
तीर-कमान और देसी कट्टे
अपने बचाव में
तन गए हैं वे सभी

वे ज़रूर बचाएँगे
अपनी आज़ाद दुनिया को
बेवज़ह कुतरे जाने से
लुटने और छिन जाने से
जैसे हर गरीब रखता है बचाकर
अपनी इज्ज़र-आबरू
येनकेन
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इधर इन दिनों

इधर
सम्पादकीय विवेक के नाम पर
एक मठाधीश का हो हल्ला है बस
ठीक सामने एक दृश्य है
जिसमें
आज़ाद अभिव्यक्ति को चौतरफा नोचा जा रहा है
अकारण जेल में धकेल दिया गया है एक विचारक
अचरज ये कि बाकी तमाशबीन मौन है

चित्र में बहसें जारी हैं इधर
सालों से चिंतन के नाम पर
एक मंच की
जिसमें आए वक्ताओं से ज्यादा
न आए विद्वानों पर चर्चा जारी है
बैठा है इस बीच सिकुड़े हुए मूँह के साथ
कौने में सुबक रहा उसी आयोजन का केन्द्रीय मुद्दा
एकदम बेबस आदमी की तरह

मत पूछो मित्र
इन दिनों इधर का हाल
इतने कवि हो गए हैं कि
जोड़ना नाम में कवि सरीखा शब्द
बेइज्जती से ज्यादा और क्या हासिल
और ढूंढना असल कवि तो और भी मुश्किल

इलाके में इधर
अपराधियों ने स्कूल खोल लिए हैं
चापलूसों ने छापेखाने
ठेकेदार पत्रिका निकालता है आजकल
लेखन करने वालों की शक्लें
टेंडर भरने वालों या फिर थोक व्यापारियों से मिलने लगी है

ऐसे में
इकलौती ज़बान कुछ भी नहीं कहती
दो सजग आँखें बार-बार बंद होती है
एक कर्मठ आदमी का शरीर होता है अब शिथिल
पगथलियां एकदम ठण्डी हुई जाती है
नींद आती हुई सूझती है मगर
नींद आती नहीं
इधर इन दिनों

माणिक 
अध्यापक 

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