- एक कुंठाग्रस्त आदमी और पागल हाथी की हरक़तों में ज्यादा फर्क नहीं होता है
- आदमी की उम्र बढ़ने के साथ ही उसके दुश्मन और दोस्त,दोनों की संख्या बढ़ने लग जाती है.दुश्मन किस्म के लोग गेलसप्पे/मूर्ख/बोखलाए/
कुंठाग्रस्त हों तो मुआमला मझेदार हो जाता है - बीते तेईस सालों में मैं यह भी जान पाया कि नृत्य प्रस्तुतियों में स्टेज पर बेकग्राउंड पर्दा डार्क कलर में होता है.बेनर पर कम से कम अक्षर हों.ताकी कार्क्रम के दौरान वे अक्षर आँखों में चुभें नहीं।आप ही बताओ डांस देखें कि पीछे से झांकते वे मोटे मोटे अक्षर।नर्तकों की पोशाकों को ठीक से निहार नहीं सके, एक कैमरामेन का एक भी एंगल ठीक से नहीं बैठा सके.तो मुझे अपनी कमसमझ पर थोड़ी शर्म आती है (आयोजक कोई भी हो सीखना जारी रहे-सलाहें जारी रहे)
- माइकफोबिया बड़ी खराब बीमारी है,वक्ता को लगता है कि श्रोता मुझे सुनके बड़े आनंदित हो रहे हैं जबकि मामला उलटा होता है.एक बात और कि जब कोई बोलने में 'हम' के बजाय 'मैं' की शैली अपनाता है,बड़ा स्वार्थकारी कदम दिखाई पड़ता है.निजी स्वार्थ हो भी तो स्याला याद रख कर 'मैं' नहीं बोलना चाहिए ताकि सामने वाले समझ ही नहीं सके कि इस बड़े आयोजन में भी हमारा बिजनस है.मतलब कभी कभी लगता है कि वक्ता के दिमाग में एक दूकान का शेप उभरा है और वह उस दूकान का एकमेव मालिक है, जो आए हुए सभी ग्राहकों को शुक्रिया कहते हुए बार बार कहता है 'मैं आप सभी का आभारी हूँ'
- एक आयोजन कब 'राष्टीय' घोषित हो जाता है पता नहीं चल पाता।नगर से बाहर के किसी अखबार में चर्चा नहीं,टीवी में कुछ खबर नहीं।किसी पत्रिका ने कोई आर्टिकल नहीं छापा।फिर भला खाली कहने से कोई आयोजन राष्टीय हो जाए तो यही कहूंगा कि 'हमारे जिले के कवियों के बीच एक कवि पास की मध्यप्रदेश सीमा के नीमच से भी आ मिले तो वो कवि सम्मेलन 'अखिल भारतीय' हो जाता है.ये 'अखिल भारतीय' और 'राष्ट्रीय' सरीखा होने की 'स्वघोषणा' कुछ ठीक नहीं है
- कुछ बदलाव और कम सोच/विचार के साथ किए गए काम बड़े अखरते हैं.लोक नृत्यों की शाम के बीच भजन की प्रस्तुतियां जची नहीं।नृत्य और उनके उम्दा कलाकार ही काफी हों ,मौजूद हों तो आए हुए दर्शकों को हमें नृत्यों के सहारे ही बांधना चाहिए।जब पंथी, सिद्धि धमाल, गोटीपुआ, गरबा रास, पवाड़ा , लावणी, बिहू, पुंग चोलो ये सब हों तो भजन भजन का चुनाव जचा नहीं।
- मीरा महोत्सव में अब भी 'मीरा' के नाम,उनकी सोच और सुधार के झोखिमभरे उन कदमों को सार्थक करता है तो दुर्ग पर स्थित मीरा मंदिर में सुबह आठ बजे होने वाली भजन प्रस्तुतियां ही है.जहां दिखावा और बाज़ार गायब रहता है.केवल रसिक ही मौजूद रहते हैं.ऐसे में मीरा के पद सुनने और फिर उनके अर्थ टटोलने का आनंद बड़ा रोमांचकारी होता है.आज तक की श्रेष्ठ कवयित्री मीरा को उनके पांच सौ साल पहले उठाए सवालों को सलाम करने मैं भी बस वहीं जा रहा हूँ.
- मीरा महोत्सव की शाम बड़ी आनंदकारी रही.हालांकि लगभग स्पिक मैके ने मुझे सभी लोक नृत्य बहुत पहले ही और कई-कई बार दिखा दिए थे मगर चित्तौड़ में एक साथ सभी को देख दिल खुश हुआ.(किसी एक ही बड़े कलाकार को एकमुश्त दो लाख देने के बजाय ज़रूरतमंद और कमलोकप्रिय मगर पूरा माद्दा रखने वाले लोक कलाकारों के कई समूहों में वही दो लाख बांटने का सुविचारित Decision बड़ा मायने रखता है )
- शुक्रिया उस व्यवस्था का जिसमें चक्कर पे चक्कर लगाने के बाद नेट चला तो सही।मुझे ठीक से मालुम है इस बीच अपने मित्रों की बहुत सारी महत्वपूर्ण पोस्ट नहीं पढ़ सका हूँ.मगर मैंने खुद को इस बीच फेसबुकफोबिये से ग्रस्त नहीं पाया।समय इत्मीनान से गुज़रा।लगा कि इंटरनेट के बगैर भी अलग से बहुत 'बड़ी दुनिया' है इस जहां में.
- ''नयी कविता में कवि होने का अर्थ ही राजनैतिक होना है'' (फर्स्ट ग्रेड का सिलेबस जारी होने के बाद से आँखों के आगे पढ़ाई करता एक शख्स/कुर्सी से चिपका एक पढ़ाकू आदमी जैसा दृश्य घूमने लगा है)
20 अक्टूबर, 2013
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