- जो घोषित रूप में जीवनभर वक्ता ही रहे अगर वे किसी अनोखे मौके/सभा/संगत/संगोष्ठी में बतौर श्रोता/दर्शक शिरकत करें मतलब समझ लिजिएगा सिद्धांतों/प्रतिबद्धताओं की जीत हुयी है।मनमाने प्रतिमान टूटे हैं।जबरन कड़क मिज़ाज रही शख्सियतें अब ढीलने लगीं है।तथाकथित को ज़मीन दिखने लगी है।जो पहले से सदैव ज़मीन पर ही रहे हैं उनके होसले बुलंदी की तरफ बढ़े हैं।पुरानी परिभाषाएँ अपने तयशुदा परफोर्मों से बाहर आ वेश बदलने लगी है।विविध मनोवृति वाले साथियों के बीच कुछ बातों पर एका करके बने समूह सही दिशा में लगने लगे। चलने का साहस और भी पक्का हो गया है।
- 'बोलना' एक कला है यह बड़बोलों/सकपकों/गेलसप्पों/
मिचामिचों/ढुलमुलों के पास भी हो ही कोई ज़रूरी नहीं।'कला' में कभी आरक्षण नहीं होता।यहाँ सिर्फ योग्यता परखी जाती है। इस तरह कुलमिलाकर नियमानुसार 'भसवाड़' करना हर किसी के बस की बात नहीं है। - आयोजन को लेकर आख़िरी टच देने घर आए कनक भैया दस बजे गए होंगे,थोड़ी आँख लगी कि अलार्म बजा।ये वक़्त था रात सवा बारह का.उठा,बाइक ली और चाबी मरोड़ते के पांच मिनट बाद रेलवे स्टेशन पर था।रात की बारिश में एकदम गीला।अलवर से आ रहे जीवन सिंह जी की ट्रेन पंद्रह मिनट लेट थी।इस पौन घंटे के अन्तराल में मैं वहीं चहलकदमी करता रहा।रात में रेलव स्टेशन का नज़ारा और बहुत सारे विचार।बारिश कभी अपने तेज होने के भाव को छोड़ फुंहारों में तब्दील होती रही। ट्रेन आयी।इस बीच अर्धांगिनी के चिंताभरे कई फोन आए होगे।बी-2 के बाहर से जीवन सिंह जी का बैग उठाकर हम बाइक तक चले।लगा बारिश तेज नहीं है मेरे कहे पर फुंहारों के बीच ही जीवन सिंह जी ने बाइक पर सर्किट हाउस तक चलना सहजता से स्वीकार लिया।कुछ लिख-पढ़ी के बाद हम सर्किट हाउस के कमरा नंबर सत्रह में थे और उसके दस मिनट बाद मैं अपने घर.उसके ठीक पांच मिनट बाद गहरी नींद में.सुबह छ: नहीं बजे के फोन की घंटिया फिर बजने लगी।उठा,दांत माजे,अखबार में आयोजन की खबरें स्केन की.पढ़ी।नेट चेक किया अब आयोजन हेतु जाने की मुद्रा में हूँ।आप सभी को आयोजन में मिस करूंगा जो यस करने का बाद कल शाम से ही अपने 'यथोचित कारणों' की आड़ में आने में असमर्थता जता रहे हैं।
- अखबार को पढने के बाद अक्सर निराशा आ घेरती है क्योंकि विवेक के अभाव में उन्हें लगता है कि 'साहित्य की खबर' कभी लीड खबर नहीं बन सकती है।
- एक बीमा अभिकर्ता तभी तक सुहावना लगता है जब तक वो अपने से किसी इंश्यूरेंस पॉलिसी की मांग नहीं करे।
- जिन्हें सिंसियर श्रोता और दर्शक समझा वे तो आजकल श्राद की खीर खाने में उलझे हुए हैं।
- आयोजनों में नहीं आने के बहानों का अपना आनंद और उन पर फिर हमविचारों टोली में फिर से चर्चा करने का आनंद तो और भी मजेदार होता है।एक महाराज तो इतने पक्के निकलें कि लास्ट मोमेंट पर बोले आज मेरी मां श्राद्ध है मैं आ नहीं सकूंगा, अरे भले माणूस चार दिन पहले भी पूछा था तब इन पंचागधारी को मालुम नहीं था कि नौमी कब पड़ रही है? कुछ श्रोता तो नहीं आने के बहाने बड़े गज़ब बनाते हैं एक ने कहा हमारे कस्बे से अब दादा नहीं आ रहे तो मैं आके क्या करूंगा।मुझे लगता है ऐसे छुट भाई लेखक का नहीं आना दोपहर भोजन की थाली के एक सौ पैंतालीस रूपए बच जाने के सुख के बराबर है। एक ने एसएम्एस में सीधे कहा 'नहीं आ सकूंगा।' न आगे 'नमस्कार' सरीखा कुछ लिखा न ही पीछे 'मुआफी' सरीखा कुछ।भई अंदाज़ पसंद आया।कुछ महानजनों का मेसेज आकाश में अटक गया बताया,हम तक नहीं पहुँचा कि वे आखिर इस बार भी क्यों नहीं आये।वैसे 'कुछ' के नहीं आने पर भी खुशी होती है।कुछ को कार्ड इसलिए भी भेजे जाने चाहिए ताकि उन्हें सनद रहे कि दूसरा खेमा इन दिनों क्या 'कुचन्या' कर रहा है.
- बेढंगे आयोजनों में जाने के आदी महानुभवों के क्या कहने,वे यहाँ भी बमुश्किल आए मगर देर तक मंच देख कर कसमसाते रहे।श्रोताओं के लिए तय कुर्सी पर उनकी बैठक पीठ में चुभती रही।मंचस्थ वक्ताओं को आँखों से तोलते रहे।बार-बार माइक पर बोलने के हित लार टपकाते रहे मगर ये नए ढंग के आयोजक स्याले एक से एक ठाबंद और लठ्ठ आदमी।जो सूची में लिखा जा चुका है उसमें एक नुक्ता भी इधर-उधर नहीं।कई के नूर और रंग फीके पड़ने लगे।बाद में समझ में आ गया कि यह नयी रवायतें और यह नया माहौल अब अपने पूरे स्वरुप में आ गया है।ऐसे में सभी को आदतें बदल लेनी चाहिए।बच्चे बड़े हो गए हैं।
01 अक्तूबर, 2013
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