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17 फ़रवरी, 2014

16-02-22014

एक रविवार परिवार के साथ बीत गया.लगता है ये बहुप्रतीक्षित रविवार था.ऐसे रविवार घरों में सुकून भर देते हैं शायद.अगर एक बहुधंधी आदमी अपना पूरा दिन परिवार पर कुर्बान पर कर दे तो समझो बहुत दिन तक के लिए घर में शांति और तसल्ली का वास हो जाता है.पत्नी की महीनों की नाराजगी एकदम काफूर.छुटकों-छुटकी की बहुत सारी मुरादें पूर जाती है.ऐसी ही शक्ल वाला लगभग सौ किलोमीटर की बाइक पर सवारी के नाम का रविवारीय दिन गुज़र गया.सड़क,पगडंडी,गाँव,बस्तियों से होकर गुज़रते हुए मस्जिदों और मंदिरों के पास से गुज़रते हुए.शुरुआती बोणी-बट्टा ही खराब हुआ गोया यात्रा का सबसे खराब हिस्सा चित्तौड़गढ़ से निम्बाहेडा तक बनते फोरलेन की उड़ती हुयी धूल,बेतरतीब चलते ट्रक-बसों से भेंटना था.सहसा याद आया कुछ रास्ते ऐसे होते हैं जिन पर चलना आत्महत्या करने के माफिक होता है.

यात्रा में बहुत कुछ देखा जो आखों की पहुँच में था.फूलों की सफेदी से पास बुलाती अफीम की फसल का उफान और पीलेपन में अब बढाती सरसों का अवसान एकसाथ देखा.ठाठ यह रहा कि हम कभी बातों के हवाई पुल बुनते हुए आनंद विभोर जैसा कुछ अनुभव कर रहे थे या कि फिर कभी-कभी घुटनों पानी से रोज़ाना गुज़रते हुए किसानों की अनुभूति से एकमेक हो रहे थे.यात्रा असल में अपने मूल ससुराल मध्य प्रदेश के जावद कस्बे की थी.गौरतलब है कि कामधंधे की तलाश ससुराल वासियों को जावद सरीखे कस्बे से भोपाल जैसे 'लगभग महानगर' में खींच ले गयी.अपने पीहर आने से बहुत पहले से ही नंदिनी अपने बचपने के दिन याद करती हुयी दे लम्बी-लम्बी बातें सुनाने लगी.वही सब बातें जो वो मुझे कई बार सुना चुकी थी खैर मैं सुनता रहा क्योंकि वो अपने गाँव को लेकर पर्याप्त नोस्टेल्जिक थीं.ये वही नंदिनी थी जो मुझे कभी गाँव में खो जाने और कविताओं में गाँव का फेरा लगा देने पर घेरती रही थी आज खुद गाँव में उलझी थी.वो बोलती अच्छा है और मैं अच्छा सुनता हूँ ये अलग भात है कि मुझे हुंकारा भरने में कभी-कभार आलस आ जाता है.साफगोई से अपने बचपने की ग़रीबी बखानती रही नंदिनी का ये अंदाज़ मुझे फिर भा गया.यहाँ तक कि अपने ही मुफलिसी के उन दिनों को अपने कटाक्ष में लपेटती हुयी बड़े आनंद के साथ सुना रही थी.खैर.

देहातों में बढ़ते धर्मस्थलों के इस दौर में कहना यह चाहता हूँ कि जावद में ज्वाला माता का एक मंदिर है.मेरे ससुराल वालों की परम इष्ट स्थल.एकाध रतजगे में मैं भी शरीक हुआ.पत्नी नंदिनी की कोई बोलमा (मनौती ) बाकी थी जिसके बारे मैं अब भी नहीं जानता.मैं सिर्फ गिरस्ती धर्म निभाने के लिहाज से उसके साथ था.इसे आप सुविधाजनक आस्थावादी रवैया कहें तो भी हर्ज़ नहीं होगा.हाँ तो हम कहाँ थे ; तैयारी पूरी थी, थैले में दो चुनरियाँ,दो पेटीकोट के लिए समुचित कपड़ा, ग्यारह अगरबत्तियां, माचिस यही कुछ था जो हमारी सास ने हमारी अर्धांगिनी को कहा और कई बारी याद दिलाया.हाँ एक मुट्ठी (मुट्ठीभर गेंहू)भी ले आये थे.जावद आते ही हमने तीसेक रूपए के दो मालाएं और कुछ खुल्ले फूल, बीस का एक एक नारियल खरीदा. दरजी को पेटीकोट सिलने डाले.टेलर के कहे पर बीस रूपए की एक गोटा-किनारी ला के दी.पचास की नोट से चुकारा कर सिले हुए पेटीकोट में लच्छे की आंट डाली.यही कोई पौन घंटे के बाद माताजी के वस्त्र एकदम तैयार थे.लगे हाथ याद आयी तो वहाँ के प्रसिद्द हलवाई परबू कुम्हार के यहाँ से इक्कीस रूपए के मावे के पेडे लिए.अब हम 'बोलमा' उतारने के लिए लगभग तैयार थे.

मंदिर के पट बारह बजे बंद होने थे.हम पौने बारह पर मंदिर की चोखट पर थे.भोपाजी हाजिर-नाजिर थे.देखते ही पहचान गए 'भोपाल वाले प्रहलाद जी की बच्ची है तू तो? हाँ बीती नोरतां में जागण बहुत बढ़िया करवाया था उन्होंने'(यही बच्ची जिसे मैंने अपनी हमसफ़र बनाया था).भोपाजी ने माताजी को वस्त्र पहनाएं.मैंने अगरबत्तियां सुलगाई, तब तक पत्नी नंदिनी हाथ जोड़े माताजी की मूरत को देखती रही. अनुष्का भी नंदिनी के ही देखादेखी कर रही थी. जातरी आते-जाते रहे मगर हम अपनी बोलमा में ही रमे रहे. भोपाजी ने एक फूल दिया जिसे नंदिनी ने ही सम्भाला.उन्होंने बुहारी भी फेरी.बोलमा उतरते ही हमारा सन्डे सफल हो गया.हमारा मतलब नंदिनी का तो सफल हो ही गया.वो बहुत आस्तिक है मुझे उसके इस आस्तिकपणे से इस घर में बिलकुल कोई मतभेत नहीं है.हम दो विचारों के होकर भी बहुत समन्वय के साथ रहते हैं.समन्वय की यह कला मैंने शादी के सात साल में जाकर अब सीखी.वैसे यह कला है बड़े काम की.

आते में ससुराल के कई रिश्तेदारों ने दे चाय-पे-चाय के प्याले परोसे.हम आनाकानी करके भी बच नहीं पाए.शक्कर ज़बान पर देर तक चस्पा रही.कहाँ कहाँ नहीं गए ?सुनारों के साथ सुथारों, दर्जियों, बामणों, लाखारों, तम्बोलियों सब जगहों पर.वहाँ भी जहां भोपाजी रहते थे.वहाँ भी जहां पत्नी की सहेलियों के घर थे.सहेलियां अपने-अपने ससुराल चली गयीं मगर उनके घर तो थे ही.वहाँ भी जहां ढोली रहता था.राखी-दोड़े के भुवाजी के यहाँ भी.किसी ज़माने में कम बोलने वाले भाईबंधों से मिल आए.यह सभी कुछ हमारे सन्डे को यादगार बनाने पर तुले हुए चर्चे हैं.

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