संगीत कलानिधि आर. के. श्रीकांतन |
हमारी स्पिक मैके मंडली से आने वाले अपडेट्स में जाना कि संगीत कलानिधि आर. के. श्रीकांतन नहीं रहे। एक बार फिर लगा कि यहाँ खबरों में मार्मिक खबरें बढ़ रही है या फिर मुझे ही ऐसा लग रहा है वैसे जान लो कि आजकल में ही 'ज़िंदगी और जोंक' वाले अमरकांत जी नहीं रहे, बांसुरी वादक पंडित रघुनाथ सेठ भी नहीं रहे।जब बड़े नाम वाले 'जानेमाने व्यक्तित्व' किस्म के लोग चल बसते हैं तो मैं उन्हें उनकी मृत्यु के बहाने उन्हें याद करते हुए फिर से उनका काम सुनने/देखने/पढ़ने लगता हूँ। यह आदत मेरे साथ ही है या फिर आप सभी के साथ भी, पता नहीं.ज़माने का दिलासेभरा वक्तव्य यही रहता है कि 'जीवन में आना-जाना लगा रहता है'। फिर भी जब विचारक और कलाविद जैसे बड़े आदमी गुज़र जाते हैं तो यह असल में हमारे समाज के लिए एक बड़ा घाटा होता है। यह भी आभास हुआ कि इस तरह हमें अपनी ग़लतियों पर रोकने और टोकने वालों की कमी होती जा रही है।सोचो चोरानवे साला श्रीकांतन जी ने कितना सादगीभरा जीवन देखा होगा। मानवीयता के मायने और लगातार छीजती जाती संवेदनशीलता ऐसे लोगों को कितना विचलित करती रही होगी।एक अनुभूति यह भी सार्वजनिक करने काबिल है कि प्रतिदिन बदलते मानकों के बीच जीवन ठगा हुआ सा लगना लगा है।बाज़ार से विचलित हुए बगैर नाम कमाना और गंभीर किस्म का काम करते रहना ज्यादा मुश्किल और जोखिमभरा होता जा रहा है।
खैर,मैं यह कहना चाह रहा था कि आर. के. श्रीकांतन जी दक्षिण भारतीय प्रदेश कर्नाटक में पैदा हुए एक बड़े शास्त्रीय गायक थे।बड़े मतलब बना नाम नहीं बड़ा और गहरा काम।सात्विक जीवन,आध्यात्म के करीब का चिंतन,मौलिक लेखन,कवितामयी जीवन और गायन की असीमित साधना और उससे जुड़े अगणित अनुभव।सबकुछ श्रीकांतन जी के साथ नहीं चला गया।हैदराबाद की प्रो. गंगादेवी जी की माने तो संतोष का विषय यह है कि उनके बहुत सारे रुचिशील शिष्यों ने उनसे वक़्त रहते सीखकर ज्ञान को सहेज लिया और अब गा/बजा भी रहे हैं।इस तरह की सूचनाएं कितनी सुखद होती है ना कि बहुत कुछ जो हाथ से छूट रहा था कुछ तो हमने सहेज लिया।मौलिकता और सृजन तो खैर सिखा नहीं जा सकता है फिर भी शैलीगत बदलाव और संगत से खुद में बहुत कुछ बदला जाता रहा है।श्रीकांतन जी कर्नाटकी शैली के गायन के ज़रिए नामचीन हुए और इधर हम देखते हैं कि हमारे देश में बहुत बड़ी विडंबना यह रही कि दक्षिण भारतीय कलाकारों को उत्तर भारत में उतना सुना और देखा नहीं जाता जितना कि चाहिए।आयोजकों के लिए उनके बहाने दूरियों और रुचियों पर आकर अटक जाते हैं।असल में यह मामला सोच और विवेक के साथ जानकारी का भी है।वैसे जता दूं कि मैं कभी श्रीकांतन जी को तो नहीं सुन पाया,यहाँ सुनने का मतलब उन्हें सजीव रूप में सुनना से ही लिया जाए।आजकल के लोग टीवी-फीवी और यूट्यूब पर सुनने/देखने को ही सजीव समझ बैठे हैं यह भी हमारे ही समाज की कई विडंबनाओं में से एक है।बार-बार गफलत में पड़कर जीने वाले इन्हीं लोगों के बीच यह विचार आता है कि हमें कला, सिनेमा, रंगकर्म, चित्रकारी, कविता, कहानी जैसी ओर भी बहुतकुछ समन्वयकारी चीजों पर चर्चे और पर्चे जारी रखने चाहिए।
शुक्रिया स्पिक मैके का जिसने मुझ जैसे हिन्दी-भाषी को कई दक्षिण भारतीय कलाकारों को सुनने/देखने न खाली आमंत्रित किया बल्कि शुरुआती दौर में तो जबरन बिठाया भी।याद आता है कि पहले पहल तो शास्त्रीय नृत्य भाता था, फिर धीरे-धीरे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के करीब आया।जब मुझे कर्नाटकी गायन के संगत में जाने का मौक़ा हाथ लगा तब जाना कि यह भी अद्भुत संसार है।मैं सहसा अपने ही देश के एक बड़े भूभाग से अपनापा अनुभव करने लगा।अलगाव की सीमाएं टूटती नज़र आयी।मैं तभी से समझ पाया कि मैं एक राजस्थानी होने के साथ ही भारतीय भी हूँ।यह भारतीयता मुझे संगीत और नृत्य की इन्हीं सभाओं-संगतों से मिली।दक्षिण भारत के कई दिग्गज और तपस्वी गायकों/वादकों को सुन चुका हूँ। कई बार भरतनाट्यम, मोहिनीअट्टम और कुड़ीयट्टम का नाच देखा है।कभी सोचा नहीं था कि पंचवाध्यम को जानूंगा।यह भी तो नहीं सोचा था कि मेरे ज्ञान में 'अम्मानुर माधव चाक्यार' सरीखे टेड़े शब्द भी शामिल होंगे।यह तो बिलकुल नहीं जाना था कि हम टुकड़े, परण, तिहाई करते-करते पल्लवी, त्रिभंगी और तिल्लाना जैसी शब्दावली से भी एकमेक हो जायेंगे।आज भी जब मृदंग सुनता हूँ तो उसकी थाप को तबले से ज्यादा प्रभावी समझने लगता हूँ।हालाँकि इस उत्तर भारत ने मुझे कथक की प्रस्तुतियां ज्यादा भेंट की है फिर भी झुकाव दक्षिण की तरफ बढ़ता दिख रहा है।यह नए को समझने और उसे पर्याप्त आदर देने की आदतों का नतीजा कहा जा सकता है।
कलामंडलम गोपी से लेकर कलामंडलम अमलजीत तक का कथकली देखा है।यादों में बहुत कुछ सहेज लिया है उसी को तरोताज़ा करने के लिए कभी-कभार स्पिक मैके के अंतर्राष्ट्रीय उत्सवों में कूद पड़ता हूँ। यही रूचि मुझे मार्गी मधु, मार्गी विजय कुमार, कपिला वेणु, रमा वैद्यनाथन को साथ लेती हुयी सुदूर दक्षिण में ले जाती है। कई बार की यात्राओं और संगीत सभाओं में अगर मैं तब की अपनी संकुचित सोच के चलते नहीं जाता तो शायद कभी भी डॉ. एम्. बालमुरली कृष्णन की साधनापरक आवाज़ सुन नहीं पाता। प्रो. टीवीएस शंकर नारायणन को कैसे सुन पाता जो आज हमारे कर्नाटकी गायन शैली के एक बड़े आयकॉन बने हुए हैं। यदि इन बेतरतीब रुचियों का झमेला नहीं पालता तो मैं स्वामी त्यागराज जी की एक भी रचना अपने कानों में नहीं उंडेल पाता। प्रादेशिक संकीर्णता ने ही मुझे बाँध दिया होता तो यक्षगान नहीं देख पाता।मैन्डोलिन, घटम, वायलिन, चित्र वीणा, मीराव, एडक्या तो कभी सुन ही नहीं पाता। यहाँ उन तमाम तकनीकों को शुक्रिया जिनकी बदौलत हमारी और हमारे बाद की पीढ़ी को यह साझी विरासत विडियो, ऑडियो और फोटोग्राफ्स के माध्यम से आंशिक खुशबू में ही सही मगर सुलभ हो सकेगी।
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