ज्यादा पुराणी तो नहीं फिर भी बीते सालों की बात है एक बार राजकुमार रिज़वी साहेब मीरा महोत्सव में चित्तौड़ आये थे.ग़ज़ल कहने वालों में एक बड़ा नाम.राजस्थान के लगभग रेतीले इलाके का एक फनकार जो खूब छाया रहा मगर आलोचक डॉ दुर्गा प्रसाद अग्रवाल की माने तो उतनी तवज्जो नहीं पा सके जितनी के वे हक़दार हैं.खैर,तब उनका पूरा कार्यक्रम डॉ ए.एल.जैन साहेब के देखरेख में होना था.हुआ भी.मैं भी घंटे-अधघंटे के लिए गया.असल में मैं ग़ज़ल का उतना शौक़ीन नहीं हूँ जितना हमारे मित्र कौटिल्य भट्ट हैं जितना नितिन सुराणा हैं.डॉ ए एल जैन हैं.एक हमारे अध्यापक मित्र तरुण लोठ हैं, भगवती लाल सालवी हैं.मैं तो खाली ग़ज़ल के नाम पर कुछ चुनिंदा आमफ़हम ग़ज़ल-गो के नाम ही जानता हूँ। नुक्ता लगाना अभी सीखा ही है.नामों की सूची से आगे अगर कोई यह पूछ बैठे तो गड़बड़ा जाता हूँ कि कौनसी ग़ज़ल किसने गाई और किसने लिखी है.खामियां है निकलते हुए ही निकलेगी.शेर,शाइर,मतला जैसी शब्दावली से अभी-अभी मुलाक़ात हुयी है.अच्छी जान-पहचान में वक़्त तो लगेगा ही.अभी मेरे लिए ऐसा वक़्त नहीं आया कि जगजीत सिंह को छोड़कर बाकी की आवाज़ एकदम से पहचान सकूं.ग़ज़ल की दुनिया भी कितनी खुबसूरत है इस बात का अहसास एक फिर तब हुआ जब चित्तौड़ के जिंक नगर में उस्ताद राजकुमार रिज़वी को सुना.ये मौक़ा हमारे साथी विपुल शुक्ला और जीएनएस चौहान ने सुझाया था.बाद में जाना कि यह जाजम हमारे यहाँ के रुचिशील एसपी प्रसन्न कुमार खिमेसरा और जिंक के यूनिट हेड विकास शर्मा ने बिछाई.शोर्ट नोटिस पर हुआ एक अच्छा आयोजन.इस शहर में ग़ज़ल के नाम पर दो-तीन साल में जाकर कोई ढंग का आयोजन आकार लेता रहा है.बेहतर रुचियों के लिए वैसे भी माहौल उतना उत्साहभरा नहीं है.फिर ग़ज़ल के शौक़ीन भी अपने-अपने घरों में ही दुबके हैं शायद.खैर यहाँ विषयांतर होने से बचाते हुए आगे बढ़े.
उन्नीस फरवरी की शाम-ए-ग़ज़ल का आगाज़ रात सवा आठ के आसपास हुआ.बास्केट बॉल के मैदान में ग़ज़लों की शाम.हवाएं इतनी ठंडी कि लोग जर्सी-कोट-मफलर-शॉलों में लिपटे चले आये.संख्या यहाँ भी ऋणात्मक लिंगानुपात की तरह ही थी.आगे की कुर्सियों पर बैठने की हिम्मत और संस्कार हममें नहीं थे.साइड की चारेक कुर्सियों पर जा चिपके.मैं,पत्नी नंदिनी,साथी कौटिल्य भट्ट और अनुष्का.कुछ देर में स्पिक मैके के दौर का लंगोटिया यार नितिन सुराणा और रमेश प्रजापत भी आ जुड़े.मुश्किल से पाँच मिनट गुज़ारे होंगे कि हमारे गुरु डॉ सत्यनारायण जी व्यास और साहित्य के साथ ही सिनेमा की पर्याप्त समझ रखने वाली रेणु दीदी भी आयी.इस सूची में पहचान के कई नाम बाद में जुड़ते गए.डॉ ए एल जैन साहेब, सत्यनारायण जी समदानी, भंवर जी सिसोदिया, कर्नल रणधीर सिंघजी, घनश्याम सिंह जी राणावत, जिला कलक्टर रवि जैन साहेब सब के सब फ्रंट रो में थे.आगे वालों को मंचस्थ कलाकार थे.जैसी उदघोषणा हुयी-के मुताबिक़ मेहदी हसन साहेब के पहले शागिर्द राजकुमार रिज़वी साहेब,उनकी अर्धांगिनी और विदुषी किशोरी अमोनकर की शिष्या इंद्राणी रिज़वी थी,साथ में उनकी बेटी नेहा रिज़वी।मुआफी चाहूँगा अमूमन होती ग़लतियों की तरह यहाँ मैं भी सितार, तबला, औक्टोपेड, सिंथेसाइजर पर संगतकारों के नाम याद नहीं रख पाया.कलाकारों के परिचय देने का अंदाज़ और ग़ज़लों की बारीक समझ पर विपुल शुक्ला की दाद देनी पड़ेगी।कॉन्फिडेंट बन्दा है।
ग़ज़लों का आगाज़ और नितिन के साथ गुफ्तगू एकसाथ शुरू हुयी।वाह-वाही के बीच हमने कई बार ठहाके लगाए.लगा कि दिनों बाद मैं खुलकर हँसा.शुक्रिया नितिन तू आता है तो मैं औपचारिक आवरण से बाहर निकलने का वक़्त जुटा ही लेता हूँ.पास बैठे कौटल्य जी से हमने बीच-बीच में ग़ज़ल की परम्परा के शोर्ट टाइम क्रेस कोर्स के टिप्स भी लिए.तभी यह भी जाना कि अच्छे शेर पर वाह या आह कहने का आनंद भी पास बैठे साथी श्रोता की संगत और समझ पर आ टिकता है.वहाँ कई ऐसे सुनकार भी मिले जो ग़लत जगह पर दाद परोस रहे थे.रिज़वी साहेब ने आठ-दस मुकम्मल गज़लें सुनायी.एक-से-एक मशहूर ग़ज़ल.तभी जाना कि तस्लीम फ़ाज़ली साहेब ने कितनी बेहतरीन ग़ज़ल लिखी है 'रफ्ता-रफ्ता वो मेरे हस्ती का सामान हो गए' .वहीं 'रंजिश ही सही' के ग़ज़लकार अहमद फ़राज़ साहेब को भी रिज़वी साहेब ने याद किया.'इतना टूटा हूँ कि छूने से बिखर जाउंगा' , 'तुझे प्यार करते-करते मेरी उम्र बीत जाए' , 'इश्क़ में हमसे बेदिली कब तक' , 'मैंने कहा तू कौन है' भी सुनायी। अमीर मीनाई की ग़ज़ल 'सरकती जाए रुख से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता' दिल को छू गयी. अंजाम-ए-इश्क़ का मजा हमसे पूछिए' , इंद्राणी जी ने शायद तबियत खराब होने की वजह कुछ नहीं ही गाया समझा जाए जिसे लिख सकें। नेहा रिज़वी ने फ़ैयाज़ हाशमी की ग़ज़ल 'आज जाने की जिद ना करो' से माहौल में फरीदा खानम जी की याद दिला दी.बाद के दौर में राजस्थानी लोक गीतों पर उन्होंने ने गला आज़माया मगर हम लौट आये.क्योंकि हम ग़ज़ल सुनाने के मूड से ही जो गए थे.
शामियाने के बाहर चाय-पकौड़ी का इंतज़ाम था.हालाँकि पैसे जेब में थे मगर चौहान साहेब के आमंत्रण पर मुफ्त में खाने-पीने का आनंद और आकर्षण हम छोड़ नहीं सके.ग्रुप फोटोग्राफी भी हुयी.अफ़सोस वहाँ हमारे बुजुर्ग मित्रों के शुगर फ्री चाय नहीं थी मगर वे पकौड़ी के साथ तो रमे हुए थे ही.नितिन कैमरा लेकर नहीं आया होता तो सबकुछ हमारी स्मृति के भरोसे ही याद रखना पड़ता।आयोजन में कमीपेशी पर चुटकियों के साथ हमने ग़ज़ल की दुनिया के चर्चे छेड़ दिए.काहिर हम जैसे नौसिखिए का तो ज्ञानवर्धन ही हुआ समझिएगा।पूरी संगत बिखरी तो जाना घर लौटते में भयंकर शीतलहर से भेंट हुयी।अरे हाँ इसी शाम में रात साढ़े दस तक की महफ़िल में कई साथी दिनों बाद मिले।असल में मिलने-मिलाने का भी एक मकसद कहीं न कहीं आयोजनों की बिसात का ही हिस्सा होता है भले ही वह मक़सद तयशुदा ना हो.मीडिया के दोस्त जे पी दशोरा भैया,मुकेश मुंदड़ा भैया , युवा छायाकार रमेश टेलर, संजीदा पत्रकार राजेश रामावत, मित्र डॉ चेतन खिमेसरा जी सब वहीं मिले।शुक्रिया रिज़वी साहेब।आप खूब जीयें।
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